मूँग की जैविक खेती कैसे करें। जाने बुवाई से कटाई तक

मूँग जायद एवं खरीफ की प्रमुख फसल है। इससे पौष्टिक तत्व प्रोटीन प्राप्त होने के अलावा फली तोड़ने के बाद फसल को भूमि में पलट देने से हरी खाद की पूर्ति भी हो जाती है। मूंग में खरीफ के मौसम में पीली मोजैक रोग का अधिक प्रकोप होने के कारण इसकी औसत उपज बहुत कम प्राप्त होती हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर मूंग की खेती को जायद में करने पर बल दिया गया है।

भूमि-

मूंग की खेती के लिए दोमट भूमि उपयुक्त होती है।

बुवाई की विधि-

बुवाई कूंड़ में हल के पीछे करें। कूंड से कूंड की दूरी 30-35 से.मी. होनी चाहिए।

संस्तुत प्रजातियां –

मूंग की अच्छी उपज लेने के लिए कम समय में पककर तैयार होने वाली प्रजातियां उपयुक्त रहती है।

मूंग की संस्तुत प्रजातियां

मूंग की संस्तुत प्रजातियां

बीज दर, शोधन तथा उपचार –

बीज दर 15-20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर

शोधन –

प्रति किलो बीज को 10 ग्राम ट्राईकोडर्मा से शोधित करना चाहिए।

उपचार-

बीज शोधन करने के पश्चात बीजों को एक बोरे पर फैलाकर मूंग के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें। बीज को उपचारित करने के लिए राईजोबियम कल्चर का पूरा पैकट (200 ग्राम) का आधा लीटर पानी में मिला दें। फिर इस मिश्रण को 10 किग्रा. बीज के ऊपर छिड़क कर हल्के हाथ से मिलायें, जिससे बीज के ऊपर एक पतली परत बन जाती है। इस बीज को छाया में 1-2 घण्टे सुखाकर बुवाई प्रातः 9.00 बजे तक या सांयकाल 4.00 बजे के बाद करें। क्योंकि तेज धूप में कल्चर के जीवाणुओं के मरने की सम्भावना रहती है। ऐसे खेतों में जहां मूंग की खेती पहली बार अथवा काफी समय के बाद की जर रही हो वहां कल्चर का उपयोग अवश्य करें।

मूँग की जैविक खेती कैसे करें। जाने बुवाई से कटाई तक

मूँग की जैविक खेती कैसे करें। जाने बुवाई से कटाई तक

खाद एवं जैव उर्वरक –

नत्रजन 15 किग्रा. फास्फोरस 40 किग्रा. तथा गंधक 20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तत्व के रूप में उपयोग करना चाहिए। हन तत्वों की पूर्ति हेतु 30 कुन्तल नादेप कम्पोस्ट खाद अथवा 50 कुन्तल सड़ी गोबर की खाद के साथ 2 किग्रा. प्रति हेक्टेयर जैव उर्वरक का उपयोग बुवाई से पूर्व करना चाहिए। दलहनी फसलों के लिए फास्फेट पोषक तत्व अधिक महत्वपूर्ण है। भूमि में अनउपलब्ध फास्फेट को उपलब्ध कराने के लिए फास्फेट सालूब्लाइजिंग बैक्टिरिया (पी.एस.बी.) कल्चर बहुत की सहायक होता है। इसलिए आवश्यक है कि नत्रजन की पूर्ति हेतु राइजोरियम कल्चर के साथ-साथ फास्फेट की उपलब्धता बढाने के साथ-साथ पी.एस.बी. का भी उपयोग करना चाहिए।

निराई-गुडाई व खरपतवार नियंत्रण –

पहली निकाई, बुवाई के 20 से 25 दिन के अन्दर तथा दूसरी आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। पहली निकाई करने से खर-पतवार नष्ट होने के साथ-साथ भूमि में वायु का संचार होता है, जो उस समय मूल ग्रन्थियों में क्रियाशील जीवाणुओं द्वारा वायुमण्डलीय नत्रजन एकत्रित करने में सहायक होता है। खर-पतवार नियंत्रण हेतु पंक्तियों में बोई गई फसल में वीडर का उपयोग आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होता है।

कीट एवं रोग नियंत्रण –

फली बेधक कीट –

उपचार –

इसकी रोकथाम हेतु बिवेरिया बेसियाना या नीम ऑयल या गौ मूत्र + गोबर + वनस्पति (ऑक, धतूरा, नीम पत्ती आदि) से तैयार किया गया तरल कीटनाशी 10-15 दिन के अन्तर पर फूल आने के समय छिड़काव करें।

फली का रस चूसने वाला कीट –

उपचार : कीटों का प्रकोप होने पर नीम ऑयल 40-50 मि.ली. 10 लीटर पानी में मिलाकर दो बार छिड़काव करें अथवा फसल पर गौ मूत्र + गोबर + वनस्पति (ऑक, धतूरा, नीम आदि) से तैयार किया गया तरल कीटनाशी 10-15 दिन के अन्तर पर छिड़काव करें। मोजेक से अवरोधी/सहिष्णु प्रजातियों का चयन कर समय से बुआई करें।

पीला चित्रवर्ण रोग –

उपचार –

यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है अतः रोग का नियंत्रण करने के लिए सफेद मक्खी पर गौ-मूत्र से निर्मित कीटनाशक का छिड़काव करें।

पत्तियों का धब्बा –

उपचार –

इसकी रोकथाम के लिए मट्ठा के साथ ट्राइकोडर्मा +तांबा + लोहा आदि से तैयार (15 दिन पुराना) घोल का छिडकाव दो बार करना चाहिए।