Rajama Ki Kheti : राजमा की खेती कैसें करें। जिससे अच्छा कमाई हो

परिचय –

राजमा की खेती भारतवर्ष के कई राज्यों ज्यादातर पहाड़ी क्षेत्र में किया जाता है राजमा किडनी के आकार का होता है जिस कारण से उसे किडनी बींस भी कहा जाता है राजमा लैगुमिनोसि परिवार का पौधा है जिसका उपकुल पेपीलियोनेसि है। राजमा दोलों में से दलहनी फसल है। भारतवर्ष में राजमा का उत्पादन पहाड़ी क्षेत्रों के ठंडी जलवायु में होता है। जम्मू, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे कई पर्वतीय और महाराष्ट्र के कुछ इलाको में राजमा की खेती के लिये जाना जाता है। पहाड़ी क्षेत्र एवं कम तापक्रम के क्षेत्रों में उगाया जा सकता है। रबी मौसम में मैदानी भागों में राजमा की खेती उपयुक्त रहता है। इसकी फसल 90 से 115 दिन के बीच में तैयार हो जाती है इसकी प्रति हेक्टयेर उत्पादकता 12 से 30 क्विंटल है प्रति हेक्टेयर 80 किलो बीज की आवश्यकता होती है साथ ही कतार से कतार का फासला 45 सेंटीमीटर और बीज से बीज की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी होती है दूसरी फसलों की तुलना में राजमा से अधिक आमदनी होती है और कई बार तो कटाई के दिन फसल बिक जाती है।

स्वास्थ में लाभ –

जो लोग मांस अंडा आदि मांसाहारी का सेवन नहीं करते है उनके लिए पोषक तत्वों से भरपूर राजमा का सेवन करना काफी लाभकारी है। राजमा के सेवन से कई फायदें मिलते हैं। ये सेहत को अच्छी रखने के साथ ही हमारे शरीर में पोषक तत्वों की कमी को पूरा करता है। राजमा पोषक तत्व से भरपूर होता है इसकी मांग भी बाजारों में हमेशा रहती है। राजमा की खेती हम दलहनी फसल के रूप में करते है। राजमा के सेवन से कई तरह के फायदे होते है। इसके सेवन से वजन कम करने में सहायता मिलती है। ये हृदय संबंधी रोग से बचाता है। इसके सेवन से हड्डियां मजबूत होती है। बॉडी बिल्डिंग वाले युवकों के लिए राजमा का सेवन काफी लाभकारी होता है। इसके अलावा ये कैंसर की रोकथाम में भी मदद करता है। मधुमेह रोगियों के लिए भी इसका सेवन करना फायदेमंद है। राजमा में कार्बोहाइड्रेट पाया जाता हैए जो मधुमेह को नियंत्रित करता है। यह कब्ज को दूर करने में भी सहायक है। एंटी.ऑक्सिडेंट्स फाइबर, आयरनए फॉस्फोरस मैग्नीशियम सोडियम और कई पोषक तत्व पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें घुलनशील फाइबर होता है।

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Rajma farming(Kideny beans)

राजमा की खेती कैसें करें। जिससे अच्छा कमाई हो

किस्में –

एच यू आर 136 –

यह किस्म को 105-107 दिन में पककर तैयार हो जाती है। सिंचिंत क्षेत्र तथा अच्छे फसल प्रबंधन में यह किस्म 14-16 कि्ंट. प्रति हेक्. की उपज देती है। इसके दानों का रंग गहरा लाल होता है तथा 100 दानो का वनज 44 से 46 ग्राम होता है।

पीडीआर -14 (उदय) –

यह मैदानी भागों में उगाने के लिये एक अच्छी किस्म है। इसकें पौधे झाड़ीनुमा होता है। फली का रंग हरा तथा फूलों का रंग सफेद होता हैं पौधों की उंचाई 40 से 50 से.मी. होती है। यह किस्म 115-120 दिन में पकती है। इसकी औसत उपज 12-15 क्टि. प्रति हेक्. तक हो जाती है। लेकिन सिंचित क्षेत्रो तथा अच्छे फसल प्रबंध में इसकी पैदावार 20-22 क्टि. प्रति हेक्. तक होती है। इसकी दानों का रंग चित्तीदार होता है एवं 100 दोनों का भार 38 से 40 ग्राम होता है।

वी एल 63 –

यह किस्म 110 -115 दिन में पककर तैयार हो जाती है। सिंचित क्षेत्र तथा अच्छे फसल प्रबंधन से यह किस्म 20 से 22 कि्ंट प्रति हेक्. उपज देती है। इसके दानों का रंग बादामी होता है तथा 100 दानों का वनज 35 से 38 ग्राम होता है।

आर.एस.जे. 178 (2005) –

इसके पकने की अवधि 115-120 दिन है। यह 15-20 क्टि. की उपज देती है। समान्यतः एवं स्वर्ण पीत शिरा तथा तना गलन एवं शुष्क जड़ गलन रोगों हेतु प्रतिरोधी क्षमता रखती है। इसके दाने सुडौल गहरे लाल भूरे रंग के आकर्षक एवं चमकीले होते है। इसके 100 दानों का वनज 40-45 ग्राम होता है। इसमे फली छेदक कीटों का प्रकोप नगण्य होता है।

वी एल 63 –

यह किस्म 110-115 दिन में पककर तैयार हो जाती है। सिंचित क्षेत्र तथा अच्छे फसल प्रबंध में यह किस्म 20 से 22 क्टि. प्रति हेक्. उपज देती है। इसके दानों का रंग बदामी होता है। तथा 100 दानों का वनज 36 से 38 ग्रा. तक होता है।

भूमि की तैयारी –

राजमा की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। लेकिन मध्यम दोमट मिट्टी इसके लिये अधिक उपयुक्त होती है। अच्छे अंकुरण के लिये खेत की 3-4 जुताई उपयुक्त होता है ताकि भूमि भुरभूरी हो जाये । इसके बाद पाटा लगाकर खेत समतल कर ले। पानी के निकास के लिये समुचित प्रबंध करना चाहिए।

बीज की दर एवं बीज उचार –

राजमा का बीज 100-120 कि.ग्रा. प्रति हेक्. की दर डालना चाहिए। प्रति कि.ग्रा. बीज को 1-2 ग्रा. कार्बेडाजिम या 3 ग्रा. थाइरम से बुवाई से पूर्व उपचारित करना चाहिए।

बुवाई का समय –

राजमा की फसल पर तापक्रम के उतार चढ़ाव का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। फूलने के समय ठंड एवं पाले से बचाव करना चाहिए। अतः अक्टूबर मध्य से अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तक राजमा की बुवाई आवश्यक है।

बुवाई की विधि-

अच्छे अंकुरण के लिये बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी रहनी चाहिए। कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे प्रति हेक्. 3.3 लाख पौधे रखें।

खाद एवं उर्वरक –

ज्यादा उपज के लिये सड़ी हुई गोबर की खाद 7-8 टन प्रति हेक्. बुवाई से 2-3 सप्ताह भूमि में मिला दे। फसल में 100-120 कि.ग्रा. नत्रजन एवं 45-60 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्. की दर से प्रयोग करें। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय बीज के नीचे कतारों से कतारों में डाले। नत्रजन की शेष मात्रा बुवाई के 25-35 दिन बाद पहली सिंचाई के उपरांत दे सकते है।

सिंचाई-

राजमा फसल के बुवाई के बाद 25 दिन के अंतर से चार सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुवाई के 25 दिन के बाद जरूर करें। फसल में गहरी सिंचाई कभी भी न करें। क्योंकि फूल एवं फलियों के दाने बनते समय मृदा में नमी हो जाने के कारण उपज कम प्राप्त होता है।
खरपतवार नियंत्रण – सिंचाई के पहले 30-35 दिन की फसल में निराई-गुड़ाई कर खरपतवार निकालें। निराई-गुड़ाई करते समय पौधें के तने पर हल्की मिट्टी चढा दें। जिससे फली युक्त पौधो को सहारा मिल सके। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु पेंडीमिथेलिन 1 कि.ग्रा., मेटोलाक्लोर 1 कि.ग्रा. या एलाक्लोर दो कि.ग्रा प्रति हेक्. अंकुरण पूर्व छिड़काव करें।

पाले से फसल का बचाव –

दिसम्बर से जनवरी में पाले से फसल को बचाने के लिये फसल पर 0.1 प्रतिशत एक मिली ली. प्रति ली. पानी गंधक के तेजाब का छिड़काव करें। संभावित पाला पड़ने की अवधि में इसे दोहराये।

कीट नियंत्रण –

सफेद मक्खी, मोयला एवं तेला की रोकथाम हेतु डाईमिथोएट 30 ई.सी. 875 मिली. ली या मानोक्रोटोफॉस 36 एस-एल. एक ली. पानी में मिलाकर प्रति हेक् छिड़के। राजमा फली छेदक कीट की रोकथाम हेतु मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. एक ली. प्रति हेक्. की 600 ली.पानी में छिड़कें।

रोग नियंत्रण –

राजमा की फसल में विषाणु रोग का हानिकारक प्रभाव देखा गया है। इस रोग को फैलाने वाली मक्खी पर नियंत्रण रखने से रोग स्वतः ही नियंत्रण में रहता है। अतः 3-4 सप्ताह की फसल में सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु ऊपर बाताय गया उपाय करें।
जड़ गलन एवं कालर रॉट – यह स्कलेरोशियम नामक फंफूद के कारण होता है। इसके नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व कार्बेडाजिम 1-2 ग्रा. या थाइरम 3 ग्रा. दवा प्रति हेक्. कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।

सफेद तना गलन –

यह स्कलेरोशियम नामक फंफूद के कारण होता है। इसके नियंत्रण हेतु बीजोपचार कर बुवाई करने के अलावा फूल आने के समय कार्बेडाजिम 1 ग्रा. प्रति ली. पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग ग्रस्त खेत में 2-3 वर्ष तक राजमा, सरसों, मटर धनियां, चना तथा बरसीम न बोयें।

कटाई तथा गहाई –

राजमा का फल जब 125-130 दिन में पक जाये तो उसे काट के 1 दिन के लिए खेत में ही छोड़ देना चाहिए। फसल पकने के बाद कटाई में देरी होने से इसकी फलियां चटककर दाने जमीन पर गिर जाते है। अत :जैसे ही फलियों का रंग पीली पड़ जाये तथा दाने सख्त हो जाये तभी फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। कटाई के बाद फसल को खलिहान में 15 से 20 दिन तक सुखाकर बैंलों से गहाई कर लें।

पैदावार-

तकनीकि विधि का इस्तेमाल कर के खेती करने पर 2000-2500 किलो प्रति हैक्टर उपज प्राप्त हो सकता है 1 हेक्. के खेत में 25-30 क्विंटल की पैदावार प्राप्त कर सकते है। बाज़ार में 8000-10000 रूपए प्रति क्विंटल होता है इस हिसाब से किसान भाई एक हेक्टेयर के खेत में 1.5-2 लाख की कमाई कर अच्छा लाभ मिल सकता है।