Mirch ki Jaivik kheti: मिर्च की खेती जैविक तरीके से कैसे करें ? मुनाफे के लिये

परिचय –

भारतवर्ष में मिर्च लगभग सभी प्रदेशों में उगाई जाती है। कच्ची हरी मिर्च को सलाद के रूप में तथा पकी हुई लाल मिर्च को मसाले के रूप में प्रयोग में लाते हैं। मिर्च को कड़ी आचार चटनी और अन्य सब्जियों में मुख्य तौर पर प्रयोग किया जाता है। मिर्च में कड़वापन कैपसेसिन नाम के एक तत्व के कारण होता है जिसे दवाइयों के तौर पर प्रयोग किया जाता है। सितम्बर-अक्टूबर मे मिर्च की नर्सरी की बुआई कर देनी चाहिए। हाइब्रिड मिर्च एक हेक्टेयर में करीब 250-300 क्विंटल तक का उत्पादन दे सकती।

भूमि एवं जलवायु –

मिर्च की खेती के लिए 15-35 डि.सें. तापमान एवं नम जलवायु उपयुक्त रहती है। आमतौर पर रात्रि का तापमान 20 डि.सें. होने पर मिर्च में फल नहीं बनते हैं और दिन में 40 डि.सें. तापमान होने पर फूल एवं फल गिरने लगते हैं।
इसकी खेती बलुई दोमट, दोमट एवं उपजाऊ दोमट भूमि जिसका पी.एच. 6.5-70 तथा एक प्रतिशत से अधिक जीवांश (जैविक कार्बन) हो, में की जा सकती है। कम वर्षा वाले स्थानों में सिंचाई का उचित प्रबंध होने पर मिर्च की अच्छी खेती की जा सकती है। जिन खेतों में वर्षा का पानी रूक जाता है वहां पर मिर्च की खेती कदापि नही करनी चाहिए।

Organic Mirch farming

Organic Mirch farming

संस्तुत किस्में –

जैविक खेती हेतु ओपन पौलिनेटेड किस्मों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। स्वयं द्वारा तैयार किया गया जैविक बीज या प्रमाणित जैविक बीज का प्रयोग करना चाहिए। ओपन पौलिनेटेड प्रजातियां. पूसा ज्वाला, पूसा सदाबहार, काशी अनमोल, पंजाब लाल, भाग्य लक्ष्मी, पंत सी.1, पंत सी.2 कुछ मुख्य उन्नतीशील प्रजातियां हैं। संकर प्रजाति. सी.एच.1, सी.एच.3 मुख्य प्रजातियां हैं। खेत की तैयारी.खेत की 2-3 बार जुताई करके गोबर की खाद की निर्धारित मात्रा को खेत में मिलाएं तथा खेत को छोटी.छोटी क्यारियों में बाँट लें।

भूमि शोधन –

मिट्टी में जीवाणुओं को सक्रिय करने हेतु 200 लीटर अमृत पानी घोल प्रति हेक्टे. या जीवामृत घोल 500 लीटर प्रति हेक्टे. की दर से छिडक़ाव करें। भूमि जनित रोगों की रोकथाम हेतु सड़ी हुई गोबर की खाद को 2-5-3 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा द्वारा संवर्धित करके बुआई पूर्व खेत में मिला दें।

बीज की मात्रा एवं बीज शोधन –

मिर्च की उन्नतशील किस्मों का 400-450 ग्राम बीज प्रति हेक्टे. पर्याप्त होता है। संकर किस्मों के लिए 200-250 ग्राम बीज प्रति हेक्टे. प्रयोग करें। रोगों की रोकथाम हेतु बीज को ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास जैविक फफूंदीनाशक 4 ग्राम प्रति 100 ग्राम बीज की दर से शोधित कर नर्सरी में बुआई करें।

बुआई का समय –

अलग.अलग प्रदशों में बुआई का समय भिन्न होता है। अतः बिभागीय/कृषि विश्वविद्यालय की सिफारिशों के अनुसार बुआई करें। प्रायः बीज की नर्सरी मई-जून तथा अक्टूबर-नवम्बर एवं मार्च-अप्रैल में लगाई जाती है।

नर्सरी एवं देखभाल –

मिर्च की पौध तैयार करने के लिए खासतौर से वर्षा ऋतु में नर्सरी जमीन से 15-20 सेमी. ऊँची बनायें ताकि पौध को अधिक वर्षा एवं आर्द्र गलन रोग से बचाया जा सके। एक हेक्टे. क्षेत्र में बीज की बुआई के लिए लगभग 200-250 वर्गमीटर क्षेत्रफल पर्याप्त होता है। नर्सरी में बुआई से 8-10 दिन पूर्व 15-20 कि्ंव. सड़ी गोबर की खाद को अच्छी तरह से मिट्टी में मिला लें। त्तपश्चात् नर्सरी मिट्टी का अमृत पानी से भूमि शोधन करें। बीज की बुआई करने बाद लाइनों को बारीक सड़ी हुयी गोबर की खाद से ढक़ दें तथा ऊपर से घास.फूस अथवा पुआल की पतली परत (पलवार) बिछा दें। जैसे ही बीज में जमाव प्रारम्भ हो जाये तो पलवार को हटा दें। गर्मी के दिनों में आमतौर पर 25-28 दिन में तथा जाड़ों के मौसम में 50-55 दिन में मिर्च की पौध तैयार हो जाती है। नर्सरी में आवश्यकतानुसार सायंकाल के समय हल्की सिंचाई एवं निकाई करते रहें। ध्यान रहे की नर्सरी में अधिक नमी होने पर आर्द्र गलन रोग लगने की सम्भावना बनी रहती है। ऐसी स्थिति में सिंचाई बन्द कर दें। गाय के गोबर का घोल या गौ.मूत्र (1 ली. को 10 ली. पानी) को प्रयोग करने से पौधे स्वस्थ रहते है। पौध रोपण से एक सप्ताह पहले नर्सरी की सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए। तथा पौध रोपण से पहले दिन नर्सरी की सिंचाई करनी चाहिए। ताकि पौध को आसानी से उखाड़ा जा सके।

रोपाई –

लगभग 30-45 दिन की आयु के पौधों को मुख्य खेत में रोप दिया जाता है। रोपाई किस्मों की बढवार एवं फैलाव को मध्य नजर रखकर 45×30 सेमी. तथा संकर किस्मों की रोपाई 75×60 स.मी. अथवा 60×45 सेमी. की दूरी पर करनी चाहिए। रोपाई करने से पूर्व मिर्च की पौध रोगसे बचाव हेतु बीजामृत 5 प्रतिशत या स्यूडोमोनास 5 प्रतिशत घोल में पौध की जडों को 15-20 मिनट डूबोकर तैयार खेत में रोपाई करें पौध रोपाई के 4-5 दिन बाद जिन स्थानों पर पौधे मर गये हों वहां पर शाम के समय स्वस्थ पौधों की रोपाई कर सिंचाई करें।

जैविक उर्वरक –

पोषक तत्वों की आपूर्ति हेतु 120-150 कि्ंव. सड़ी गोबर की खाद या 50-60 कि्ंव. कम्पोस्ट या 8-10 कि्ंव. वर्मीकम्पोस्ट को खेत में जुताई से पूर्व अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें। रोपाई से पूर्व खेत का पलेवा करते समय जीवामृत या वेस्ट डिकम्पोजर का घोल 500 ली. प्रति हेक्टे. सिंचाई के साथ प्रयोग करें। गौ.मूत्र 10 प्रतिशत घोल का पहला छिडकाव रोपाई के 25-30 दिन बाद तथा दूसरा फूल आने की अवस्था पर करें। पहली निकाई-गुड़ाई के समय वर्मी कम्पोस्ट बिखेर कर मिट्टी में मिलाएं तथा बाद में सिंचाई करें। वर्मीवाश के 10 प्रतिशत घोल के 3 छिडक़ाव क्रमशः फूल आने से पहले, फूल आने के समय तथा फल लगने की अवस्था में करने से फलचमकदार तथा पूर्ण विकसित होते हैं। समन्वित पोषण प्रबंधन हेतु हरी खाद, दलहनी फसलें, सी.पी.पी. खाद, पंचगव्य, वर्मीवाश, गौ.मूत्र आदि को सम्मिलित करें। हरी खाद में दलहनी फसलों से लगभग 30-40 प्रतिशत नाइट्रोजन की आपूर्ति हो जाती है। इसके अतिरिक्त एजोस्पोरिलम 3-4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. गोबर की खाद में मिलाकर बुआई पूर्व खेत में प्रयोग करें।

सिंचाई –

पौध रोपाई के बाद तुरन्त हल्की सिंचाई करनी चाएह। गर्म मौसम में 6-7 दिन तथा सर्दियों में 10-12 दिन के अन्तरालपर सिंचाई करते रहें, ध्यान रहे कि खेत में अधिक पानी न लगने पाये।

खरपतवार नियंत्रण –

मिर्च में साधारणतः 3-4 निकाई.गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है पहली निकाई पौध रोपाई के लगभग 20-25 दिन बाद तथा दूसरी व तीसरी निकाई.गुड़ाई 40-45 एवं 55-60 दिन बाद करनी चाहिए। साथ.साथ पौधों पर मिट्टी चढाना भी आवश्यक है।

कीट प्रबधंन –

  • सफेद मक्खी/माइट/थ्रिप्स.ये सभी रस चूसने वाले हानिकारक कीट हैं। जो पौधों की पत्तियों, तना, फूल, फल आदि से रस चूसकर उसको कमजोर कर देते हैं। इनके द्वारा चिप.चिपा पदार्थ छोड़ने के कारण पत्तियो में श्वसन एवं भोजन बनाने की प्रक्रिया में बाधा पहुंचती है। सफेद मख्खी द्वारा लीफ कर्ल वायरस रोग का संक्रमण हो जाता है।

    प्रबंधन-

  • खरपतवार एवं परिपोषी पौधों को नष्ट करना।
  • नर्सरी में नेट (100 मैस) लगाकर पौध को कीड़ों के आक्रमण से सुरक्षित रखना।
  • पीले चिपचिपे (येलो स्टीकी) ट्रैप लगाकर सफेद मख्खियों का नियंत्रण करना।
  • निमोलीशत 5 प्रतिशत या नीम तेल 3 प्रतिशत या छाछ तथा गौमूत्र (1 ली./12.15 ली. पानी) का छिड़काव।
  • अधिक प्रकोप होने पर वर्टी सिलियम लैकानी 5.10 ग्रा./ली. पानी की दर से छिड़काव।

फल छेदक-

यह बहुत ही हानिकारक सुण्डी है जो मुख्य रुप से फलों में छेद करके बहुत नुकसान पहुचाते हैं।

प्रबंधन-

  • गर्मी में खेत की गहरी जुताई करके कीट की विभिन्न अवस्थाओं को नष्ट करना।
  • गेंदे को ट्रैप क्रॉप के रुप में लगाकर सूत्र कर्मी, फल छेदक आदि कीटों की रोकथाम करना।
  • फेरोमैन ट्रैप लगाकर फल छेदक कीट की निगरानी एवं रोकथाम करना।
  • निमोली शत 5 प्रतिशत तथा तरल कीटनाशक 10 प्रतिशत का 15 दिन के अन्तराल पर 2.3 छिड़काव।
  • बिवेरिया बेसियाना 3.4 कि.ग्रा.या बी.टी. 2.2.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. का फूल बनने से पहले एवं फल बनने पर छिड़काव।
  • ट्राइकोग्रामा अण्ड परजीवी के 50 हजार अण्डे (ट्राइकोकार्ड)/हेक्टे.को खेत में लगायें।
  • फल छेदक की रोकथाम हेतु एन.पी.वी. 500 एल.ई. घोल का प्रति हेक्टे. छिड़काव।

प्रबंधन –

प्रतिरोधी प्रजातियां का चुनाव, उचित फसल चक्र, भूमि व बीज का उपचार, पौधों का उचित फासला, समय से बुआई, उचित पोषण प्रबंधन आदि को अपनाकर फसल को इन रोगों से बचाया जा सकता है। सुरक्षात्मक उपाय के तौर पर फसलों में 15-20 दिन पुरानी खट्टी छाछ तथा हल्दी (2 ग्रा./ली. छाछ) का घोल बनाकर 1ः10.15 (1 ली. छाछ एवं 10.15 ली. पानी) का छिड़काव करें।

रोग प्रबंधन –

उक्टा रोग-

यह फफूंदी तथा जीवाणु जनित रोग है तथा पौधे की जडों को प्रभावित करके पौधों को नष्ट कर देता है।
प्रबंधन. गर्मी की गहरी जुताई, फसल चक्र, रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का चुनाव, फसल अवशेष नष्ट करना, बीज, पौध एवं भूमि का जैव फफूंदनाशकों द्वारा शोधन एवं भूमि में नीम की खली का प्रयोग।
लीफ कर्ल. यह रोग रस चूसने वाले कीटों द्वारा वायरस के संक्रमण के कारण फैलता है।

उपचार-

स्वस्थ बीज, रोग रोधी किस्में, खरपतवार एवं परपोसी पौधों को नष्ट करना, कीटों से सुरक्षा के लिए पौधशाला में नेट लगाना, बीमारी ग्रस्त पौधों को नष्ट करना, रोग फैलाने वाले कीटों का नियंत्रण करना।

आर्द्र गलन रोग-

यह फफूंदी से फैलने वाला रोग है, इसकी रोकथाम हेतु नर्सरी को ऊंचे स्थान पर बनाएं तथा उपचारित करें। बीज एवं पौध को ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास द्वारा उपचारित करके बुआई/रोपाई करें।
कीट रोगों से बचाव के लिए मिर्च के बाद किसी भी सोलेनेसियस परिवार की सब्जियों जैसे टमाटर, बैंगन, शिमला मिर्च, आलू, आदि की फसल नहीं लेनी चाहिए।

फलों की तुडाई, सफाई, ग्रेडिंग, पैकिंग एवं विपणन –

मिर्च की तुड़ाई 5-6 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। खेत से मिर्च तोड़ने के पश्चात रोग ग्रस्त, सडे.गले फलों को छांटकर अलग करने के बाद शेष फलों को ग्रेड (बड़े मध्यम एवं छोटे आकार) में रखें बाजार में भेजने के लिए फलों को साफ करके लकड़ी के क्रेट्स का उपयोग करना लाभदायक व सुविधाजनक रहता है। मिर्च के फलों का 8-10 डि.सें. तथा 85-90 प्रतिशत अपेक्षित आर्द्रता पर एक सप्ताह तक अच्छे स्वरूप में भंडारण किया जा सकता है।

बीज उत्पादन –

किसानों को मिर्च की संकर किस्मों के अतिरिक्त उन्नतशील किस्मों का जैविक बीज उत्पादन अपने ही प्रक्षेत्र पर करना चाहिए। मिर्च एक स्वयं संचित (Self Polliated) फसल है। रोपाई के समय प्रमाणित शुद्ध किस्मों के स्वस्थ पौधों को खेत में एक किनारे पर रोपित करना चाहिए। एक किस्म से दूसरी किस्म के बीच में कम से कम 400 मीटर पृथक्करण दूरी  होना अनिवार्य है, अन्यथा दोनों किस्म के बीज में शुद्धता नहीं रह पायेगी। इन पौधों की विशेष देखभाल जैसे. सिंचाई, निकाई.गुड़ाई, खरपतवार नियंत्रण, रोग एवंकीट नियंत्रण आवश्यकतानुसार समय पर करना चाहिए। यदि कोई पौधा किसी अन्य किस्म, छोटी.छोटी पत्तियाँ अथवा वायरस रोग ग्रस्त का दिखाई दे तो उसको समय.समय पर निरीक्षण के समय फूल आने से पहले तुरन्त उखाडकर फेंक दें। जिस समय फल अपना वास्तविक रंग बदलकर पूर्ण रूप से गहरे लाल रंग के हो जाए तब समझना चाहिए कि फल पक गये हैं। उसी समय लाल फलों को तोड़क़र धूप में अच्छी तरह से सुखाए। फलांं को सुखाने के बाद बीज को अलग कर लें। बीज को तब.तक सुखाया जाए जब.तक बीज में नमी की मात्रा 8 प्रतिषत होनी चाहिए। सूखे हुये बीज को हवा मुक्त सूखे काँच के डिब्बे में सुरक्षित नमी रहित स्थान पर रखना चाहिए।