अदरक की जैविक खेती कैसे करें। उन्नतशील किस्में

परिचय –

भारत में अदरक मसाले की एक प्रमुख फसल है। यह केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा छत्तीसगढ़ आदि में उगाया जाता है। जैविक अदरक का उत्पाद किसानों के लिए अतिरिक्त आमदनी का एक मुख्य स्रोत हो सकता है।

स्वास्थ में लाभकारी –

अदरक मसाले में व्यापक रूप से प्रयोग होने के साथ.साथ इसका उपयोग बहुत सी बीमारियों की औषधि बनाने में भी किया जाता है। जैसे- अदरक खाने से पाचन तंत्र को मजबूत बनाने में मदद मिलता है। खाली पेट अदरक का सेवन करना बहुत ही फायदेमंद होता है। अदरक का सेवन से डायबिटीज के मरीजों के लिए फायदेमंद होता है तथा वजन भी कम करता है, हार्ट में मदद करता है।

भूमि एवं जलवायु –

यह कई प्रकार की भूमि में पैदा किया जा सकता है लेकिन बलुई या जीवांशयुक्त मिट्टी, जिसमें पानी का निकास अच्छा हो, इसके लिए सर्वोत्तम माना जाती है। ऐसी भूमि जिसमें जीवांश की मात्रा एक प्रतिशत से अधिक तथा पी.एच. 5 से 6-5 हो, अदरक की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई है। गरम एवं नम जलवायु, हल्की छायादार जमीन इसके लिए उपयुक्त है। सिंचित एवं असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। अंकुरण के समय हल्की वर्षा या एक-दो सिंचाई आवश्यक हैं। अंकुरण के बाद लगातार वर्षा तथा फसल तैयार होने के समय सूखा मौसम लाभदायक होता है।

उन्नतशील किस्में  –

विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु, भूमि आदि को ध्यान में रखकर विभागीय/कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सिफारिश की गई प्रजातियों का चयन करें। स्थानीय उन्नतिशील प्रजातियाँ जो जैविक फार्म पर उगाए गई हों, के स्वस्थ कन्दों का चुनाव करें।

बीज की मात्रा –

बुआई हेतु 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टे. बीज की आवश्यकता होती है। कन्द के एक टुकड़े का वजन 20.30 ग्राम तथा उसमें चार अंकुर/आँख होने चाहिए।

बीज शोधन –

बुवाई पूर्व प्रकन्दों को बीजामृत/पंचगव्य घोल, ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास के 5 प्रतिशत घोल द्वारा 30 मिनट तक उपचारित करके छायादार जगह में सुखाकर बुआई करें।

Ginger for Organic farming

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बुआई का समय –

प्रायः बुआई जलवायु के अनुसार अलग-अलग समय पर की जाती है। सामान्यतः अदरक की बुआई मई के प्रारंभ से मध्य जून तक की जाती है। मध्य मई इसकी बुआई का उपयुक्त समय है।

खेत की तैयारी –

पिछली फसल की कटाई के बाद बुआई के समय के अनुसार भूमि की दो.तीन जुताई करके पाटा लगार जमीन को भुरभुरी बना लें। गोबर की सड़ी खाद (15.20 टन प्रति हेक्टे.) एवं जैव उर्वरक, नीम की खली की निर्धारित मात्रा को खेत में डालकर जुताई करके मिलाएँ।

भूमि शोधन –

भूमिजनित जीवाणु रोगों की रोकथाम हेतु ट्राइकोडर्मा जैव फफूंदनाषक 4.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से 150.200 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर बुआई पूर्व जुताई के समय खेत में मिलाएँ। मिट्टी की जैविक शक्ति सुधारने के लिए जीवामृत/पंचगव्य (1 : 10), सी.पी.पी. (1 : 14) का भूमि में मिलाएँ।

बुआई –

खेत में 1 मीटर चौड़ी, 3.6 मीटर लम्बी व 15 सेमी. ऊँची क्यारियाँ बनाएँ। उचित पानी के निकास हेतु क्यारियों के बीच की दूरी 30 सेमी. रखें तथा पानी के निकास हेतु 5 सेमी. गहरी नाली बनाएं। कतार से कतार की दूरी 25 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 20 सेमी. रखें। बीज बोने के बाद हल्की मिट्टी से ढ़क दें तथा क्यारी को सूखी खरपतवार/पुआल की मोटी परत से ढ़क दें ताकि नमी बनी रहे और अंकुरण अच्छा हो।

खाद एवं जैविक उवर्रक –

भूमि का परीक्षण कराएं तथा सुझाव के अनुसार खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। अंतिम जुताई के समय 200-250 क्विंटल गोबर की खाद/80-100 क्विंटल नादेप कम्पोस्ट का प्र्रयोग करें। इसके अतिरिक्त अदरक की फफंदी रोगों की रोकथाम हेतु 10-15 क्विंटल नीम की फली का भूमि में प्रयोग करें। एजोस्पोरिलम, पी.एस.बी. एवं जिंक उपलबध कराने वाले जैव उर्वरकों का 3-4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से भूमि में प्रयोग करें। 30-35 दिन बाद 500 लीटर जीवामृत या वेस्ट डिकम्पोजर का सिंचाई के साथ प्रयोग करें। प्रकन्दों के विकास एवं फसल की वृद्धि के लिए दो महीने बाद 15-20 क्विंटल केंचुए की खाद का प्रयोग करें। पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति करने हेतु खड़ी फसल में जीवामृत, पंचगव्य तथा वेस्ट डिकम्पोजर आवष्यकतानुसार फसल की वृद्धि अवस्था में सिंचाई के साथ प्रयोग करें।

सिंचाई –

पहली सिंचाई बुआई के तुरंत बाद तथा इसके बाद 10-15 दिन के अंतर पर करें। वर्षा के अनुसार सिंचाई की संख्या कम या अधिक हो सकती है। अदरक में अंकुरण, कन्द के बनने एवं विकास अवस्थाएं मुख्य हैं। जिसमें फसल में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।

निकाई-गुडाई एवं खरपतवार प्रबंधन –

अदरक में अच्छे जमाव तथा अधिक वर्षा से भूमि के कटाव को रोकने के लिए हरी पत्तियों की पलवार/मल्चिंग करना एक आवष्यक कार्य है। इससे भूमि में नमी का संरक्षण होता है तथा फसल की बाद की अवस्थाओं में जीवांष उपलब्ध होता रहता है।

फसल चक्र अपनाना, हरी खाद की फसलें लगाना, अन्तः फसल लगाने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। फसल के पहले तीन-चार सप्ताह में खरपतवारों पर नियंत्रण करना आवष्यक है। मक्का, मिर्च, बैंगन को मिश्रित फसल के रूप में तथा मक्का को अन्तः फसल के तौर पर उगाया जा सकता है।

कीट प्रबंधन-अदरक के मुख्य कीट निम्न प्रकार हैं-

तना छेदक –

इस कीट की लारवी भूरे रंग के होते है। जो तने में छेद करके उसके गूदे को खा जाती है। तना सूख जाता है तथा पौधे की ऊपरी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। इसका प्रभाव सितंबर से अक्टूबर के बीच अधिक होता है। इसके उपचार हेतु स्वस्थ बीज का चुनाव करें। प्र्रभावित तने को काटकर खोलें तथा लारवे को पकड़ कर नष्ट कर दें, प्रकाष एवं फेरोमेन ट्रेप लगाएं तथा नीम ऑयल 5 मिली. प्र्रति लीटर पानी, निमोली सत 5 प्रतिषत या वनस्पतिक तरल कीटनाषक 5.10 प्रतिषत का 15.20 दिन के अन्तर पर छिड़काव करें।

राइजोम मक्खी –

इसकी सुण्डी कन्दों को छेद करके नुकसान पहुंचाती हैं। स्वस्थ बीज का चुनाव, मित्र कीटों का संरक्षण एवं निमोली सत, नीम का तेल या वनस्पतिक कीटनाषक छिड़काव करें।

सफेद गिडार-

इसकी सुण्डी जड़ व तनों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैं। बिटल्स को पकड़कर नष्ट करना, मेटाराइजियम को गाय के गोबर में प्रयोग करना।

रोग प्रबंधन –

पत्तियों के धब्बे. जुलाई.अक्टूबर महीने में भूरे रंग के धब्बे पत्तियों पर दोनों तरफ बनते हैं। पत्तियां का रंग लाल.भूरा हो जाता है तथा पीली होकर सूख जाती हैं।
प्रतिरोधी किस्मों और स्वस्थ्य बीज का प्रयोग, बुआई पूर्व प्रकन्दों का बीजामृत या स्यूडोमोनास द्वारा उपचार तथा कॉपर ऑक्सीक्लोराइड/ बोर्डेक्स मिश्रण का छिड़काव आदि द्वारा रोग प्रबंधन करें।

मृदु गलन-

यह अदरक का सबसे हानिकारक रोग है। यह संक्रमित बीज तथा कन्दों द्वारा फैलता है। इसका प्रभाव आभासी तने के निचले भाग में होता है तथा ऊपर की तरफ फैलता है। प्रभावित पौधों की पत्ती धीरे.धीर किनारों से सूखने लगती हैं तथा सारी पत्तियां सूख जाती हैं। तने का निचला हिस्सा नम और मुलायम हो जाता है। जिसके परिणाम स्वरूप पौधा गिर जाता है एवं प्रकन्द सड़ जाता है।

कन्द गलन/उखटा-

यह संक्रमित बीज तथा कन्दों द्वारा फैलता है। पहले नीचे की पत्तियां पीली हो जाती हैं तथा बाद में पूरी पत्ती सूख जाती हैं। सूखा हुआ पौधा खड़ा रहता है। है। आभासी तने के निचला भाग नम और मुलायम हो जाता है।
उचित पानी का निकास, स्वस्थ बीज, ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास 5 प्रतिषत घोल में 30 मिनट तक कन्दों को डुबाकर उपचार तथा भूमि में नीम की खली एवं ट्राइकोडर्मा का प्रयोग।

कटाई- खुदाई और विपणन –

हरे अदरक हेतु इसकी कटाई 5.7 महीने में हो जाती है। इस अवस्था में पत्तियां पीली पड़नी शुरु हो जाती हैं तथा कन्दों का सूखना शुरु हो जाता है। जबकि सूखे अदरक के लिए इसकी कटाई फसल के पूरी तरह पकने पर फसल रोपण के 8.9 महीने बाद करनी चाहिए।

कन्द का प्रसंस्करण एवं भण्डारण –

कन्दों को अच्छी तरह धोकर उनसे मिट्टी जड़ें आदि साफ कर देनी चाहिए। भण्डारण में होने वाले कीटों की क्षति को रोकने हेतु कन्दों को 10 मिनट तक पानी में उबाल कर सुखा देना चाहिए तथा 11 प्रतिषत नमी वाले कन्दों का भण्डारण करना चाहिए। भूमि की जुताई करके या हाथ से खुदाई करके प्रकन्दों को एकत्र किया जाता है। कटाई किए गए प्रकन्दों से मिट्टी और उनसे चिपके अन्य तत्वों को साफ करना चाहिए। अच्छा बीज तैयार करने के लिए प्रकन्द को छायादार जगहों पर गड्ढों में भण्डारण करते हैं। गड्ढों की दीवारों को गोबर से लीप देते हैं। बीज प्रकन्द की प्रत्येक परत को 2 सेमी. रेत या बुरादे की परत से ढ़क दें। इन गड्ढों को पर्याप्त वायु मिलने के लिए उसके अनुरूप जगह छोड़ देते हैं तथा पत्तों से ढ़क देते हैं। समय.समय पर जांच करके मुरझाए या रोग ग्रसित कन्दों को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए।