मक्का की जैविक खेती कैसें करें। उन्नतशील किस्में

परिचय –

मक्का के दाने में 10 प्रतिशत प्रोटीन, 4 प्रतिशत तेल तथा 2.3 प्रतिशत क्रूड फाइबर रेशा पाया जाता है। मक्का राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखण्ड, जम्मू.कश्मीर आदि प्रदेशों में उगाई जाती है। इसका क्षेत्रफल वर्षा एवं सिंचाई साधनों के अनुसार घटता.बढ़ता रहता है। यह अनाज भुट्टे एवं चारा देने वाली फसलों के रूप में प्रयोग की जाती है। कृषि से होने वाली आमदनी में मक्का का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

भूमि एवं जलवायु –

मक्का के लिए दोमट मिट्टी अच्छी होती है लेकिन बलुई दोमट में भी मक्का उगाई जा सकती है। इसके लिए भूमि लवणीय या क्षारीय नहीं होनी चाहिए। खेत में जल निकास का होना भी आवश्यक है। यह उत्तरी भारत में खरीफ मौसम में बोई जाने वाली मुख्य फसल है। इसके लिए उष्ण एवं नम जलवायु उपयुक्त है। दक्षिणी प्रदेशों में इसकी खेती अप्रैल से अक्टूबर माह तक की जाती है।

उन्नतशील किस्में

मक्का की कुछ प्रमुख प्रजातियाँ निम्न प्रकार हैं –

  • ए.एच..58
  • ए.एच..421
  • पूसा कम्पोजिट.3,4
  • गंगा हाइब्रिड.4,5
Maize-organic-Farming

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खेत की तैयारी –

खेत की दो.तीन बार जुताई करके पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा बना देना चाहिए ताकि बुआई के समय पर्याप्त नमी खेत में मौजूद हो और बीज का सही जमाव हो सके। खेत से खरपतावर एवं पहली फसलों के सूखे अवशेष बाहर निकाल देने चाहिए।

भूमि उपचार –

दीमक, सफेद गिडार आदि भूमि में रहने वाले कीटों की रोकथाम के लिए खेत की तैयारी के समय बुआई पूर्व नीम की खली 5-6 क्विं. प्रति हेक्टे. की दर से प्रयोग करें। कीटों का अधिक प्रकोप होने पर बिवेरिया बेसियाना या मैटाराइजियम 3-4 कि.ग्रा. को 150-200 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर खेत में अन्तिम जुताई के समय प्रयोग करें। भूमिजनित फफूंदरोग की रोकथाम हेतु 3.4 कि.ग्रा. ट्राईकोर्डमा पाउडर को गोबर की खाद में मिलाकर अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए।

बुआई का समय-

विभिन्न क्षेत्रों में भूमि, जलवायु, सिंचाई के साधनों तथा प्रजातियों के अनुसार मक्का की बुआई अलग.अलग समय पर की जाती हैं। खरीफ में मक्का की फसल की बुआई मानसून आने के 15-20 दिन पहले कर देनी चाहिए। अगेती बुआई करने से खरपतवार कम होते हैं तथा फसल की जल्दी पकने से रबी मौसम की फसलों की बुआई समय से की जाती है।

बीज दर एवं बुआई की विधि –

मक्का में देशी छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिए 16-18 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. तथा संकुल प्रजातियों के लिए 20-25 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। बुआई हल के पीछे कतारों में करें। अगेती किस्मों में कतार से कतार की दूरी 45 सेमी. तथा मध्य एवं देर से पकने वाली प्रजातियों में 60 सेमी. होनी चाहिए। इसी प्रकार अगेती प्रजातियों में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेमी. तथा मध्य एवं देर से पकने वाली प्रजातियों में 25 सेमी. होनी चाहिए।

बीज शोधन –

बीज एवं भूमिजनित रोगों के जीवाणुओं से बचाव हेतु अनुमोदित जैविक कीटनाशक, फफूंदनाशक एवं जैव उर्वरक से उपचारित करके बिजाई करें। बीज उपचार के तरीके निम्न प्रकार हैं –
बीजामृत/वेस्ट डिकम्पोजर द्वारा. बीजामृत या वेस्ट डिकम्पोजर घोल को बीज पर छिड़कें तथा अच्छी प्रकार मिलाकर 2-3 घण्टे बाद बुआई करें।

  • ट्राइकोर्डमा विरिडी (जैव फफूंद) द्वारा. बीज में 8.10 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से ट्राइकोडर्मा पाउडर अच्छी तरह मिलाएँ तथा 2-3 घण्टे बाद बुआई करें।
  • जैव उर्वरक द्वारा. जैव उर्वरक जैसे. अजेटोबैक्टर/एजोस्पोरिलम, फास्फेटिका आदि द्वारा 20 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीज का उपचार करें। इसके लिए जैव उर्वरक की 400-500 ग्रा. मात्रा को गुड़ का घोल बनाकर मिला लें तथा बीजों पर छिड़ककर अच्छी तरह मिलाएँ तथा छाया में सुखाकर बुआई करें।

खाद एवं जैव उर्वरक –

मक्का में भरपूर उपज लेने हेतु संतुलित रुप से पोषण प्रबंधन करना आवश्यक है। इसके लिए गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, केंचुआ खाद आदि का प्रयोग करें। इन पोषक तत्त्वों की पूर्ति करने हेतु 150-175 कि्ंव. प्रति हेक्टे. की दर से सड़ी गोबर की खाद बुआई पूर्व खेत की जुताई करते समय प्रयोग करें। लाभदायक जीवाणु की क्रियाशीलता एवं उपजाऊ शक्ति बनाए रखने के लिए 4-5 कि.ग्रा. अजेटोबैक्टर को सड़ी गोबर की खाद के साथ मिलाकर पूरक उर्वरक के रूप में बुआई से पूर्व भूमि में प्रयोग करें। खड़ी फसल में जीवामृत तथा वेस्ट डिकम्पोजर घोल 500 ली. प्रति हेक्टे. सिंचाई के साथ दो.तीन बार प्रयोग करें। पोषक तत्त्वों की कमी होने पर फसल में पंचगव्य 5 प्रतिशत या गोमूत्र 10 प्रतिशत घोल का एक.दो छिड़काव करें।

सिंचाई –

पौधों को प्रारंभिक अवस्था तथा सिलकिंग से दाना पड़ने की अवस्था में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यदि वर्षा न हो तो सिंचाई करके पर्याप्त नमी बनाए रखना आवश्यक है।

निराई.गुड़ाई/खरपतवार निष्कासन –

मक्का की फसल में निराई-गुड़ाई का अधिक महत्व है। निराई.गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ पौधों की जड़ों में ऑक्सीजन का संचार होता है। पहली निराई बुआई के 15-20 दिन बाद और दूसरी 35-40 दिन बाद करनी चाहिए। उड़द, मूंग लोबिया, सोयाबीन आदि को अन्तःफसल या मिश्रित फसल के रुप में बोने से खरपतवारों की संख्या पर नियंत्रण रहता है।

कीट प्रबंधन-मक्का में पाए जाने वाले मुख्य कीट निम्न प्रकार हैं-

1. तना छेदक .इस कीट की सुण्डियाँ तने में छेद करके अन्दर खाती रहती हैं जिससे मृत गोभ बन जाता है तथा तना सूख जाता है।
2. टिड्डा .इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों को खाकर हानि पहुँचाते हैं।
3. कातरा/कमला कीट.इस कीट की बालदार सुण्डियाँ पत्तियों को तेजी से खाकर हानि पहुँचाती हैं।

उपचार-

  • भूमि की गर्मी में गहरी जुताई करके कीड़ों के अण्डे, सुण्डी, प्यूपा आदि को नष्ट कर दें।
  • फसलों में समय.समय पर खरपतवार निष्कासन करते रहें।
  • कीटों की रोकथाम हेतु नीमास्त्र घोल या नीम के तेल (3.5 मिली. प्रति ली.) का छिड़काव करें।
  • वनस्पतिक तरल कीटनाशी 10 प्रतिशत घोल का 10.15 दिन के अन्तर पर छिडक़ाव करें।
  • अधिक प्रकोप होने पर बिवेरिया बेसियाना/मैटाराइजियम का 2.3 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करें।

रोग प्रबंधन –

1. तुलासिता रोग-

इस रोग में पत्तियों पर पीली धारियाँ पड़ जाती हैं। पत्तियों के नीचे की सतह पर सफेद रुई के समान फफूंदी दिखाई देती है। यह धब्बे बाद में गहरे लाल, भूरे पड़ जाते हैं। रोगी पौधों में भुट्टे कम बनते हैं या बनते ही नहीं हैं।

उपचार- इसकी रोकथाम हेतु जैव फफूंद नाशक ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास 2.3 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. छिड़काव करें।

2. तना गलन-

इस रोग से तने पर धब्बे बनते हैं तथा तना गलने लगता है और पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती हैं।

उपचार इसकी रोकथाम के लिए स्यूडोमोनास/ट्राइकोडर्मा या बीजामृत द्वारा बीज का उपचार करें।