बैंगन की जैविक खेती कर के बाजार से अच्छा मुनाफा लें| Organic farming of Brinjal take good profit by Market|

परिचय –

सब्जियों में बैगन का प्रमुख स्थान है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र आदि बैंगन उगाने वाले प्रमुख क्षेत्र हैं। भारतवर्ष में पैदा की जाने वाली मुख्य सब्जियों में से एक है।

स्वास्थ में लाभ-

बैंगन की सब्जी खाने के फायदे कई है जैसे – डायबिटीज, हदय रोग, याददाश्त, धूम्रपान, पाचन शक्ति, कैसंर, रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सहायक होता है।
बैंगन की सब्जी ज्यादा सेवन करने से कुछ नुकसान भी है जैसें -त्वचा खुजली, छोटे-छोटे दाने और खुजली, होठो में सुजन, जीभ में जलन उल्टी आदि की शिकायत हो जाती है। बैंगन की सब्जी बनाते समय हींग का जरूर प्रयोग करें। जैसे -गैस और बदहजमी आदि की शिकायत नहीं होती है।

जलवायु –

बैंगन को लगभग 120 दिन का गर्म मौसम चाहिए। इसके लिए कम तापक्रम व पाला नुकसानदायक है। यह सूखे और अधिक वर्षा को सहन कर सकता है।

उन्नतशील प्रजातियां –

कृषि विश्वविद्यालयों, अनुसंधान केन्द्रों द्वारा संस्तुत की गई प्रजातियों का उनकी विशषताओं के अनुसार चयन करना चाहिए। जैविक खेती हेतु ओपन पौलिनेटेड किस्मों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। किसानों को स्वयं द्वारा तैयार किया गया जैविक बीज या प्रमाणित जैविक बीज का प्रयोग करना चाहिए। लम्बे समय में तैयार होती है।

किस्में-

ओपन पौलिनेटेड प्रजातियां.पूसा उत्तम, पूसा उपकार, पूसा परपल लौंग, हिसार श्यामल (एच.8), हिसार प्रगति, पंजाब नीलम, आजाद क्रान्ति, आनन्द. 1, पूसा क्रान्ति आदि।

संकर प्रजातियां-

पूसा हाईब्रिड 5, पूसा हाईब्रिड.6, पूसा हाईब्रिड.9, मंजू, बी.एच..1, बी.एच.. 2 आदि।

संस्तुत प्रजातियां.पूसा बरसाती, अरका नवनीत, अनामिका तथा पूसा बिन्दु, पूसा हाईब्रिड 9, प्रगति आदि

Organic farming of Brinjal

Organic farming of Brinjal

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी –

जल निकास वाली उपजाऊ दोमट व भारी दोमट मिट्टी बैंगन की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। भूमि का पी.एच. 6.7.5 तथा भूमि में जैविक कार्बन की उचित मात्रा होनी चाहिए। खेत की 2-3 बार जुताई करनी चाहिए तथा ट्राइकोडर्मा द्वारा सवंर्धित गोबर की खाद को खेत में मिला देना चाहिए। इसके बाद खेत को छोटे.छोटे क्यारियों में बांट लें।

भूमि उपचार –

मिट्टी में जीवाणुओं को क्रियाशील करने तथा फफूँदीरोगों की रोकथाम हेतु अमृत पानी या वेस्ट डिकम्पोजर/जीवामृत (जीवाणु घोल) को 500 ली. प्रति हेक्टे. की दर से शाम के समय छिडक़ाव करें।

फसल चक्र –

बैंगन की फसल में कीट एवं बीमारियों को कम करने के लिए बैंगन के बाद किसी भी सोलनेसियस कुल की सब्जियों जैसे.टमाटर, मिर्च, शिमला मिर्च आलू आदि की फसल नहीं लेनी चाहिए।

बीज की मात्रा एवं बीज शोधन –

बैंगन की उन्नतशील किस्मों का 400-500 ग्राम बीज़ तथा संकर किस्मों के लिए 250-300 ग्राम बीज प्रति हेक्टे. की दर से प्रयोग करें। ट्राईकोडर्मा जैविक फफदूंनाशक 4 ग्राम प्रति 100 ग्राम बीज की दर से शोधित करके नर्सरी में बुआई करें। ट्राईकोडर्मा प्रयोग करने से बीजों में अंकुरण अच्छा होता है तथा पौध फफूंदी जनित रोग से मुक्त रहती हैं। बीज का शोधन एक भाग खट्टी छाछ तथा 4 भाग पानी का घोल बनाकर उसमें 6 घण्टे तक बीज को डुबोकर या एक प्रतिशत पंचगव्य घोल में 12 घण्टे तक भिगोकर भी किया जा सकता है। उसके बाद बीज को छाया में सुखाकर नर्सरी में 6-7 सेमी. की दूरी पर लाइनोंमें समान दूरी पर बुआई करें।

बवाई का समय –

बैंगन की बिजाई/रोपाई हेतु बागवानी विभाग, कृषि विष्वविद्यालय, कृषि अनुसंधान केन्द्र की सिफारिषों के अनुसार ही करें। प्रायः बीज की नर्सरी में बुआई जून-जुलाई, अक्टूबर-नवम्बर एवं फरवरी-मार्च माह में की जाती है।

नर्सरी एवं देखभाल –

नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए 3 मी. लम्बाई 1 मी. चौड़ाई, 15-20 सेंमी. ऊँची क्यारियाँ बनाएँ। एक हेक्टे. क्षेत्र में बीज की बुआई के लिए लगभग 200 वर्गमीटर क्षेत्रफल पर्याप्त होता है। नर्सरी में बुआई से पहले 250 ग्रा. ट्राइकोडर्मा को 50-60 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें।
बीज की बुआई करने के बाद लाइनों को बारीक सड़ी हुई गोबर की खाद से ढ़क दें तथा ऊपर से घास-फूंस अथवा पुआल की पतली परत (पलवार) बिछा दें। बीज में जमाव प्रारम्भ होने के बाद पलवार को हटा दें। गर्मी के दिनों में आमतौर पर 25-28 दिन में तथा जाड़ों के मौसम में 50-55 दिनों में टमाटर की पौध तैयार हो जाती है। नर्सरी में आवश्यकता अनुसार सायं काल के समय हल्की सिंचाई एवं निकाई करते रहें। नर्सरी में बीमारी लगने की संभावना को ध्यान रखकर स्यूडोमोनास फफूंदनाशक का छिड़काव करें।

रोपाई –

बैंगन की पौध स्वस्थ तथा 3-4 पत्तियां होनी चाहिए।खेत में 75×60 सेमी.60×60 सेमी., 60×45 सेमी. की दूरी पर किस्मों की बढ़वार एवं फैलाव को मध्य नजररखकर करनी चाहिए। पौध को जड़ व तने में लगने वाले सड़न रोग से बचाव हेतु 500 ग्राम स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स को 25 लीटर पानी में घोल कर अथवा बीजामृत के 3 प्रतिशत घोल में पौध की जडा़ें को 15-20 मिनट डुबोकर तैयार खेत में रोपाई करें एवं खेत की तुरंत सिंचाई करें। पौध रोपाई के 4-5 दिन बाद जिन स्थानों पर पौधे मर गये हों वहां पर शाम के समय स्वस्थ्य पौधों की रोपाई कर सिंचाई करें।

खाद एवं जैविक उर्वरक-

खेत तैयारी के समय 100-150 कि्ंव. सड़ी गोबर की खाद अथवा 50-60 क्विं. कम्पोस्ट अथवा 20-25 क्विं. वर्मी कम्पोस्ट प्रति हेक्टे. की दर से अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें। गोबर की खाद में 4-5 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास मिलाकर प्रयोग करने से भूमि जनित फफूंद रोग से बचाव किया जा सकता है। जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ाने एवं पोषक त्तवों की आपूर्ति करने के लिए जैव उर्वरक (अजैटोबैक्टर या एजोस्पोरिलम, पी.एस.बी.) 3.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से जैविक खाद में मिलाकर बुआई पूर्व खेत में मिला दें।
गौ.मूत्र 10 प्रतिशत घोल का पहला छिडकाव रोपाई के 25-30 दिन बाद तथा दूसरा फूल आने की अवस्था पर सायं काल के समय करें। पहली निकाई.गुडा़ई के समय रोपित पौधों में 15.20 क्विं. प्रति हेक्टे. की दर से नादेप/वर्मी कम्पोस्ट का बुरकाव करें। वर्मीवाष तथा पंचगव्य के 5.10 प्रतिशत घोल के 3 छिडक़ाव क्रमशः फूल आने से 8.10 दिन पहले, फूल आने के समय तथा फल बनने की अवस्था में करने से फलों का विकास एवं फल गुणवत्तायुक्त होते हैं। जीवामृत या वेस्ट डिकम्पोजर 500 ली. प्रति हेक्टे. को सिंचाई के साथ 3-4 बार प्रयोग करें।

सिंचाई –

पौध रोपाई के बाद तुरन्त हल्की सिंचाई करनी चाहिए। फसल के पहले 70 दिन तक पर्याप्त नमी बनाये रखनी चाहिए। फल.फूल बनने की अवस्था में सिंचाई करना अति आवश्यक है। गर्म मौसम में 6-7 दिन तथा सर्दियों में 10-12 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहें। ध्यान रहे कि खेत में अधिक पानी न लगने पाए।

खरपतवार प्रबंधन –

बैंगन में साधारणतः 3-4 निकाई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली निकाई पौध रोपाई के लगभग 20-25 दिन बाद तथा दूसरी व तीसरी 40-45 एवं 55-60 दिन बाद करनी चाहिए। साथ-साथ पौधों पर मिट्टी भी चढ़ा देना आवश्यक है। फसल में पलवार (मलि्ंचग) का प्रयोग करने से खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है।
बैंगन के साथ गेंदा की अन्तरफसलीय फसल लेने से फल एवं शाखा छेदक पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

कीट प्रबंधन –

फल छेदक-

यह बहुत ही हानिकारक सुण्डी है जो मुख्य रुप से फलों में छेद करके बहुत नुकसान पहुचाते हैं।

प्रबंधन-

  • गर्मी में खेत की गहरी जुताई करके कीट की विभिन्न अवस्थाओं को नष्ट करना।
  • गेंदे को ट्रैप क्रॉप के रुप में लगाकर सूत्र कर्मी, फल छेदक आदि कीटों की रोकथाम करना।
  • फेरोमैन ट्रैप लगाकर फल छेदक कीट की निगरानी एवं रोकथाम करना।
  • निमोली शत 5 प्रतिशत तथा तरल कीटनाशक 10 प्रतिशत का 15 दिन के अन्तराल पर 2.3 छिड़काव।
  • बिवेरिया बेसियाना 3.4 कि.ग्रा.या बी.टी. 2.2.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. का फूल बनने से पहले एवं फल बनने पर छिड़काव।
  • ट्राइकोग्रामा अण्ड परजीवी के 50 हजार अण्डे (ट्राइकोकार्ड)/हेक्टे.को खेत में लगायें।
  • फल छेदक की रोकथाम हेतु एन.पी.वी. 500 एल.ई. घोल का प्रति हेक्टे. छिड़काव।
  • सफेद मक्खी/चेपा/हरा तेला-

  • ये सभी रस चूसने वाले हानिकारक कीट हैं। जो पत्तियों व पौधों से रस चूसकर उसको कमजोर कर देते है। तथा वायरस फैलाकर पत्तियों का मुड़ना, पीला पड़ना तथा पीला मोजेक जैसे.वायरस रोग फैलाते हैं।

    प्रबंधन-

    • खरपतवार एवं परिपोषी पौधों को नष्ट करना।
    • नर्सरी में नेट (100 मैस) लगाकर पौध को कीड़ों के आक्रमण से सुरक्षित रखना।
    • पीले चिपचिपे (येलो स्टीकी) ट्रैप लगाकर सफेद मख्खियों का नियंत्रण करना।
    • निमोलीशत 5 प्रतिशत या नीम तेल 3 प्रतिशत या छाछ तथा गौमूत्र (1 ली./12.15 ली. पानी) का छिड़काव।
    • अधिक प्रकोप होने पर वर्टी सिलियम लैकानी 5.10 ग्रा./ली. पानी की दर से छिड़काव।

रोग प्रबंधन-

उकटा, लीफ कर्ल एवं आर्द गलन रोग बैंगन के मुख्य रोग हैं।

प्रबंधन –

प्रतिरोधी प्रजातियां का चुनाव, उचित फसल चक्र, भूमि व बीज का उपचार, पौधों का उचित फासला, समय से बुआई, उचित पोषण प्रबंधन आदि को अपनाकर फसल को इन रोगों से बचाया जा सकता है। सुरक्षात्मक उपाय के तौर पर फसलों में 15-20 दिन पुरानी खट्टी छाछ तथा हल्दी (2 ग्रा./ली. छाछ) का घोल बनाकर 1ः10.15 (1 ली. छाछ एवं 10.15 ली. पानी) का छिड़काव करें।

उक्टा रोग-

फफूंदी तथा जीवाणु जनित रोग हैं तथा पौधे की जडों को प्रभावित करके पौधों को नष्ट कर देता है।

उपचार-

गर्मी की गहरी जुताई, फसल चक्र, फसल अवशेष नष्ट करना, बीज, पौध एवंभूमि का जैव फफूंदनाशकों द्वारा शोधन एवंभूमि में नीम की खली का प्रयोग।

लीफ कर्ल –

यह रोग रस चूसने वाले कीटों द्वारा वायरस के संक्रमण के कारण फैलता है।

उपचार-

स्वस्थ बीज, रोग रोधी किस्में, खरपतवार एवं परपोसी पौधों को नष्ट करना, कीटों से सुरक्षा के लिए पौधशाला में नेट लगाना, बीमारी ग्रस्त पौधों को नष्ट करना, रोग फैलाने वाले कीटों का नियंत्रण करना।

आर्द्र गलन रोग-

बीज एवं पौध का ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास द्वारा उपचार।

फलों की तुडाई, सफाई, ग्रेडिंग, पैकिंग एवं विपणन –

बैंगन के फलों की तुड़ाई 4-5 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। खेत से बैंगन तोड़ने के पश्चात रोग ग्रस्त, सडे-गले और फल छेदक आदि फलों को छांटकर अलग करने के बाद शेष फलों को ग्रेड (बड़े, 15 मध्यम एवं छोटे आकार) में रखें। बाजार में भेजने के लिए फलों को साफ करके लकड़ी के क्रेट्स का उपयोग करना लाभदायक व सुविधाजनक रहता है। बैंगन के फलों को 7.10 डि.सें. तथा 85-90 प्रतिशत अपेक्षित आर्द्रता पर 8-10 दिन पर अच्छे स्वरूप में भण्डारण किया जा सकता है।