Bottle Gourd organic farming लौकी (घीया) की जैविक खेती|

भूमि एवं जलवायु –

लौकी/घीया की अच्छी खेती के लिए गर्म और नम जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी अच्छी बढ़वार तथा उत्पादन के लिए रात और दिन का तापक्रम क्रमषः 18-22 डि.सें. तथा 30-35 डि.सें. होना चाहिए। वातावरण में अधिक नमी होने पर फसल में रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके बीज की बुआई 18-30 डि सें. तापक्रम पर की जा सकती है। इसका अंकुरण 25-30 डि सें. पर जल्दी हो जाता हैं। इसकी सफल खेती करने के लिए बलुई दोमट एवं नदियों के किनारे की मिट्टी जिसका पी.एच. मान 6 से 7 के बीच हो, बहुत ही उपयुक्त रहती है।

उन्नत प्रजातियाँ –

क्षेत्रों की भूमि, जलवायु आदि को ध्यान में रखते हुए  कुछ प्रजातियाँ निम्न प्रकार हैं –

ओपन पौलिनेटेड/देसी किस्में –

पूसा समर, पूसा नवीन, प्रौलिफिक लोंग, नरेन्द्र रष्मी, प्रौलिफिक राउण्ड, पूसा कोमल एवं अर्का बहार आदि।

संकर किस्म –

पूसा हाईब्रिड.3, प्रतीक।

बुआई का समय, बीज-मात्रा एवं बीज-शोधन –

लौकी की बिजाई फरवरी-मार्च, जून-जुलाई तथा नवम्बर-दिसम्बर में (पॉली हाउस के अन्दर) की जानी चहिए। 1 हेक्टे- क्षेत्रफल में देशी किस्मों की बिजाई करने के लिए 3-6 कि.ग्रा. तथा हाईब्रिड प्रजातियों के लिए 1-1.5 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त रहता है। बोने से पूर्व बीज को ट्राइकोडर्मा (4 ग्रा. प्रति 100 ग्राम) या बीजामृत/वेस्ट डिकम्पोजर के घोल से शोधित कर लेना चाहिए।

Bottle Gourd organic farming..
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भूमि- षोधन एवं बुआई विधि –

सामान्यतः बरसात वाली फसल की बुआई समतल खेत में 3 मीटर की दूरी पर लाईन में 60-70 सेमी. की दूरी पर थावलों में करते हैं। गर्मी की फसल में पानी की अधिक आवश्यकता होती है इसलिए बुआई नालियों में करना अच्छा रहता है। इसके लिए 3 मीटर के फासले पर एक मीटर चौड़ी नाली बनाते हैं और इन्हीं नालियों के दोनों किनारों पर 70 सेंमी. की दूरी पर थावले बनाकर बीज की बुआई कर देते हैं। एक थावले में 4-5 बीज होने चाहिए। जायद में अगेती फसल लेने के लिए लौकी के बीज को थैलियों में एक भाग सडी़ गोबर की खाद व एक भाग मिट्टी का मिश्रण भरकर बीज की बुआई की  जाती है। प्रत्येक पॉलिथीन बैग में पर्याप्त नमी के साथ 4-5 बीज 1.5 सें.मी. की गहराई पर बोने चाहिए। पॉलिथीन बैग को घास-फूस से ढ़क देना चाहिए तथा अंकुरित होने पर पलवार को हटा दें। लौकी की पौध को तैयार होने पर खेत में 3 मीटर चौड़ी या आवश्यकतानुसार लम्बाई की क्यारियांं में मेंढ़ के दोनों तरफ 60 सें.मी. की दूरी पर थावले में लगा देते हैं। इन थावलों की मिट्टी का अमृत पानी या ट्राइकोडर्मा द्वारा भूमि शोधन करने से मृदाजनित फफूंद रोगों की रोकथाम हो जाती है।

खेत में रोपाई का समय –

मुख्य खेत में बनाये गये थावले/गड्ढ़ों के बीच में लौकी की रोपाई फरवरी के अन्त में अथवा मार्च के प्रथम सप्ताह में यानि जब पौध में दो पत्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो जायें, करनी चाहिए। ध्यान रखें कि रोपाई करते समय पॉलिथीन बैग को एक तरफ से चाकू की सहायता से काटकर हटा दें। पॉलिथीन को अलग करने के पश्चात मिट्टी सहित पौधे की रोपाई कर देनी चाहिए। तत्पश्चात् तुरन्त ही खेत की सिंचाई कर दें।

खाद एवं जैविक उर्वरक-

बीज की खेत में सीधी बुआई के लिए खेत तैयार करते समय 70-80 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद, 30 क्विंटल नादेप कम्पोस्ट/10-15 वर्मी कम्पोस्ट प्रति हेक्टे. की दर से खेत में मिलाएं। इसके अतिरिक्त बुआई करने से पहले जैव उर्वरक, अजेटोबैक्टर, पी.एस.बी. की 3-4 कि.ग्रा. मात्रा को गोबर की खाद में मिलाकर एक हेक्टे. क्षेत्र में बुआई पूर्व बिखेर कर मिला दें। थावले में पौध की रोपाई करने से पूर्व 3-4 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद/नादेप कम्पोस्ट को गड्ढे की मिट्टी में मिलाकर पौध की रोपाई करें।
गौ-मूत्र के 10 प्रतिशत घोल का पहला छिड़काव रोपाई/सीधी बिजाई के 20-25 दिन बाद तथा दूसरा छिड़काव 40-45 दिन पर करें। पहली निकाई.गुडा़ई के समय गड्ढ़ों में पौधे के चारों तरफ जड़ों के पास प्रति गड्ढे की दर से एक कि.ग्रा. नादेप/वर्मीकम्पोस्ट का प्रयोग करें। 5 प्रतिशत वर्मीवाश या पंचगव्या के घोल का छिड़काव क्रमशः फूल आने से पहले, दूसरा फल बनते समय एवं तीसरा, फल विकसित होने की अवस्था में करने से लौकी के फल बडे़, ठोस एवं चमकीले बनते हैं।

सिंचाई –

गर्मियों की फसल में एक सप्ताह के अन्तराल पर सिंचाई करते रहें। फल के पूर्ण विकसित होने की अवस्था में आवश्यकता पड़ने पर ही सिंचाई करें। फसल में कभी भी गहरी/अधिक सिंचाई न करें। पानी कभी भी फलों के संपर्क में नहीं आना चाहिए।

खरपतवार प्रबंधन-

लौकी की फसल में साधारणतः दो.तीन बार ही निकाई.गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली निकाई.बुआई रोपाई के लगभग 20-25 दिन बाद तथा दूसरी व तीसरी निकाई.गुड़ाई क्रमशः 35-40 एव 50-55 दिन बाद करनी चाहिए। यदि खेत में खरपतवार की संख्या अधिक है तो चौथी गुड़ाई 70-75 दिन बाद करें। जायद व गर्मियों की फसल में पलवार (मल्चिंग) के प्रयोग से खरपतवार पर नियंत्रण के साथ.साथ सिंचाई पानी की बचत भी की जा सकती है।

कीट प्रबंधन –

कद्दू का लाल कीट.यह कद्दूवर्गीय सब्जियों का एक प्रमुख हानिकारक कीट है। इसके ग्रब तथा बीटलस पत्तियों एवं फूलों को खाकर उनमें छेद कर देते हैं। प्रारंभिक अवस्था में पौधा पूर्णतया नष्ट हो जाता है।
फल-मक्खी  यह एक प्रमुख हानिकारक कीट है। इसके मैगट फलों के गूदे को खाते हैं तथा फलों से चिपचिपा पदार्थ निकलने लगता है। फल टेढ़े.मेढे़े हो जाते हैं तथा समय से पहले टूटकर गिर पड़ते हैं।
लीफ माइनर. यह सुरंग बनाकर पत्तियों को क्षति पहुँचाती है।

प्रबंधन-

  • गर्मी में खेत की गहरी जुताई करके कीट की विभिन्न अवस्थाओं को नष्ट करना।
  • खरपतवार वैकल्पिक परपोषी पौधों को नष्ट करना।
  • बीटल को पकड़कर नष्ट करना तथा मख्खी से प्रभावित फलों को एकत्र करके भूमि में दबाकर नष्ट करना।
  • 5 प्रतिशत नीम की पत्ती/निमोली सत या और 2.3 प्रतिशत लहसुन सत का 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव।
  • अधिक आक्रमण की अवस्था में बिवेरिया बेसियाना 2 कि.ग्रा.प्रति हेक्टे. का छिड़काव।

रोग प्रबंधन-

आर्द्रगलन –

यह एक फफूंदी जनित रोग है जो नए अंकुरित पौधों की जड़ों/तनों को प्रभावित करता है जिससे पौधा नीचे गिर जाता है।
फल सडऩ यह खरीफ में बोई जाने वाली लौकी की मुख्य बीमारी है। यह पिथियम, फाइटोफ्थोरा, राइजोक्टोनिया नामक भूमि जनित फफूंद से फैलता है। भूमि से सम्पर्क में होनी वाली पत्तियाँ व फल इसके संक्रमण से गल जाते हैं।

प्रबंधन-

गर्मी की गहरी जुताई, फसल चक्र, जल निकास,किंग प्रभावित फलों को नष्ट करना, ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास (3.4 कि.ग्रा.को 150 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर) द्वारा भूमि उपचार तथा बीज शोधन एवं नीम की खली (150-200 कि.ग्रा.) का प्रयोग आदि।

मृदु रोमिल आसिता एवं चूर्ण आसिता (पाउडरी/डाउनी मिल्डयू)-

ये लौकी को हानि पहंचाने वाली मुख्य बीमारियां हैं। पाउडरी मिल्डयू से प्रभावित पत्ती, तने व फल आदि पर मट मैले सफेद रंग का पाउडर जैसा पदार्थ लगा रहता है और पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। पौधे एवं फलों की बढ़वार रुक जाती है। डाउनी मिल्डयू से प्रभावित पत्तियों पर अनियमित छोटे-छोटे पीले धब्बे बन जाते हैं। अधिक नमी वाले मौसम में भूरे-सफे़द रंग की फफूंद पत्तियों के नीचे दिखाई देती है।

  • उपचार-

  • रोग-प्रतिरोधी प्रजातियां का चुनाव।
  • प्रभावित क्षेत्रों में 1.2 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिए।
  • प्रभावित फसल अवशेष, पत्ती व फल आदि को नष्ट करना।
  • पौधों के बीच का उचित फासला एवं पानी का उचित निकास।
  • पौधों को लकड़ियों के सहारे ऊपर चढ़ाना।
  • 10 प्रतिशत जीवामृत तथा गौमूत्र का 10-15 दिन के अन्तराल पर प्रयोग।
  • 5 कि.ग्रा. हल्दी पाउडर को 20 कि.ग्रा. राख में मिलाकर बुरकाव करना।
  • 8-10 दिन पुरानी 20 लीटर खट्टी लस्सी/मट्ठे में 50 ग्राम हल्दी तथा ताँबे के तार को मिलाकर और इसे 250 लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अन्तराल पर इसका 2-3 बार छिडक़ाव करना।

तुड़ाई, ग्रेडिंग, पैकिंग एवं विपणन-

फलों को मुलायम अवस्था में ही उचित आकार के होने पर चाकू की सहायता से काट लेना चाहिए। रोगग्रस्त, सड़े-गले फलों को अलग करने के बाद शेष फलों को आकार के अनुसार ग्रेड (मध्यम एवं छोटे आकार) में रखें। बाजार में लौकी को भेजने के लिए लकड़ी के क्रेटस का उपयोग करना लाभदायक व सुविधाजनक रहता है। इसविधि से लौकी व फल दागी व खराब नहीं होते हैं।

बीज उत्पादन –

लौकी एक परसेंचित फसल है। लौकी का आनुवांशिक शुद्ध बीज उत्पादन प्राप्त करने के लिए दो किस्मों के बीच 800 मीटर की पृथककरण दूरी रखना आवश्यक होता है। बीज उत्पादन करने वाले पौधे/बेल की विशेष देखभाल जैसे.सिंचाई,निकाई.गुड़ाई, खरपतवार नियंत्रण, रोग एवंकीट नियंत्रण आवश्यकतानुसार समय पर करना चा