धनिया की जैविक खेती से लें। अधिक आमदनी जाने कैसे ?

परिचय-

धनिये की खेती मुख्यतः हरी पत्तियों के लिए की जाती है। यह ठण्डी जलवायु में उगाई जाने वाली फसल है। धनिये की पत्तियों की बढ़वार एवं खुषबू के लिए ठण्डे मौसम की आवश्यकता होती है। सामान्य से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में धनिये से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। प्रारम्भ में धनिये की फसल की दो बार कटाई के बाद बीज उत्पादन किया जा सकता है जो एक मुनाफे की खेती है। धनिये की अच्छी उपज हेतु जीवांशयुक्त उचित जल.निकास वाली दोमट मिट्टी अच्छी रहती है।

उन्नतशील किस्म –

धनिये की उन्नतशील किस्मों में पन्त हरितमा, पंजाब सुगन्ध, पंजाब कटुई पत्तियों के लिए एक अच्छी किस्म है। पन्त हरितमा तना, वर्ण, (स्टेम गाल) रोग के प्रति सहनषील, दाने का आकार छोटा, व हल्का पीलापन लिये होता है।

बीज की मात्रा एवं बुआई का समय –

धनिये की बिजाई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। धनिये के बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी केवल हरी पत्तियों अथवा दाने के लिए अथवा दोनों के लिए बुआई करनी है। आमतौर पर हरी पत्तियों के लिए धनिये की बुआई छिटकर या मेंढ़ों के ऊपर करते हैं। धनिये का बीज छिटकर बोने पर एक हेक्टे. क्षेत्र में 20-25 कि.ग्रा. तथा मेंढ़ों पर बुआई करने पर 15-20 कि.ग्रा. बीज की आवष्यकता होती है। धनिये की बुआई पक्तियों में 25-30 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10-12 सेंमी. होनी चाहिए। बीज अंकुरण के लिए 22-25 डि.सें. तापक्रम उपयुक्त रहता है। धनिये की बुआई करने से पूर्व बीज को दो भागों में विभाजित कर लेना चाहिए।

खाद एवं जैविक उवर्रक –

धनिये की अच्छी उपज प्राप्त करने हेतु जमीन का उपजाऊ होना जरूरी है जिसके लिए 80-100 क्विंटल सडी़ गोबर की खाद या 40 क्विंटल केंचुआ खाद को खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला दें। इसके अतिरिक्त बुआई करने से पहले जैव उर्वरक, अजेटोबैक्टर/एजोस्पोरिलम/पी.एस.बी. का 3.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे.. को सड़ी गोबर की खाद या केंचुए की खाद में मिलाकर बुआई पूर्व प्रयोग करें। तत्पश्चात् लाईन में धनिये के बीज की बुआई करें। फसल में 10-12 दिन के अन्तर पर प्रति हेक्टे. 100 लीटर गौ.मूत्र का प्रयोग सिंचाई के साथ प्रयोग करें। 5 प्रतिशत पंचगव्य या वर्मीवाश का 2-3 बार छिड़काव करने से धनिये की अच्छी बढ़वार होती है।

निकाई.गुडाई एवं खरपतवार प्रबंधन-

प्रारम्भिक अवस्था मेंं बुआई के 20-25 दिन बाद हल्की सिंचाई कर निराई.गुड़ाई करना आवश्यक रहता है। तत्पष्चात् 40-45 दिन के बाद दूसरी निराई.गुड़ाई करने से धनिया की खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। जिससे धनिये की जड़ों एवं पत्तियों का अच्छा विकास होता है। धनिये की अच्छी पैदावार लेने के लिए 8-10 दिन के अन्तराल पर हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

Organic Coriander farming
Organic Coriander farming

रोग प्रबंधन –

धनिये में विभिन्न प्रकार के रोग लगते हैं जिससे उपज के साथ-साथ गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।

उकठा रोग –

इस रोग के लगने से पौधे मुरझाकर धीरे-धीरे मरने लगते हैं। उकठा रोग की रोकथाम हेतु फसल-चक्र को अपनाएं। बुआई से पूर्व बीज को बीजामृत से उपचारित करने तथा बुआई के पूर्व ट्राइकोडर्मा तथा सड़ी गोबर की खाद के मिश्रण को प्रयोग करने से रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

स्टेम गाल –

इस रोग की पहचान यह है कि इसके संक्रमण से पौधे के तने, पत्तियों और डण्ठल के ऊपर छोटी.छोटी गांठेंं बन जाती हैं। इस रोग की प्रतिरोधी किस्म ’पन्त हरितमा’ रोग से पूरी तरह से मुक्त है। अतः इस किस्म की बुआई करनी चाहिए।

चूर्णी फफूंदीं –

इस रोग के प्रारम्भ में पत्तियों एवं शाखाओं पर सफेद चूर्ण जैसी परत जम जाती है जिससे पत्तियां पीली पड़कर मुड़ जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए 8.10 दिन के अन्तराल पर बोर्डेक्स मिक्चर का एक.दो छिड़क़ाव करते रहना चाहिए।

कीट प्रबंधन –

धनिये की फसल में कभी.कभी सेमीलूपर गिड़ार एवं चैंपां कीट का आक्रमण होता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु 5 प्रतिशत ब्रह्म अस्त्र/अग्नि अस्त्र/निमोली पाउडर के घोल का छिडक़ाव करें।

पैदावार –

धनिया की जैविक फसल से पैदावार भूमि की उर्वरा शक्ति उनकी किस्म व फसल की देखभाल पर निर्भर करती है लेकिन उपरोक्त उन्नत विधि से धनिया की जैविक खेती करने पर 12 से 18 क्विंटल सिंचित फसल से और 9 से 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  पैदावार मिल जाती है।

बीज उत्पादन –

जैविक आनुवांशिक शुद्ध बीज उत्पादन के लिए 500 मीटर पृथक्करण दूरी रखनी चाहिए। धनिये की दो लाईनों के बीच में 25.30 सें.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 25.30 सें.मी. रखनी चाहिए। प्रारम्भ में, बीज की फसल से 2.3 कटाई करने के बाद फसल को बीज उत्पादन के लिए छोड़ देना चाहिए। बीज पकने के बाद पौधों को काटकर खेत में सुखा लें तथा बीजों को निकालकर, साफ करके, धूप में सुखाकर (बीज में 10 प्रतिषत की नमी होनी चाहिए।) काच की बोतल अथवा डिब्बे में सुरक्षित स्थान पर रख देना चाहिए।

जैविक प्रमाण पत्र –

जैविक प्रमाणीकरण एकवर्षीय तथा द्विवर्षीय फसल वाली भूमि के लिए 3 वर्षीय कार्यक्रम है किसान इन वर्षों के दौरान भी अपना उत्पाद जैविक विधि से पैदा कर बाजार में बेच सकता है जिससे वह अधिक मूल्य प्राप्त कर सकता है ।