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सबसे पहले कार्प मछलियों का पालन कैसे करें –
राज्य के हर गांव में ऐसा जल क्षेत्र उपलब्ध है जहां कार्प मछलियों की जल कृषि की जा सकती है। यदि तालाब पुराना है, तो जल कृषि के पहले तालाब की भौतिक स्थिति में सुधार, गर्मी के दिनों में ही कर लेना चाहिए। तालाब का पानी बाहर न आने पाये, इसके लिए तालाब के बांध की मरम्मत ठीक से करना चाहिए एवं प्रवेश व निकास द्वार को सुरक्षित बना लेना चाहिए। तालाब को गहरा कर देने से नितल की सफाई हो जाती है। जिसके कारण मछलियों में बीमारी की समस्या नहीं आती तथा जल कृषक को स्वस्थ्य मछलियाँ तथा उपज का अधिक मूल्य मिलता है।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मछलियां जलीय उत्पाद है एवं इनकी सारी जीवन क्रियायें पानी में ही सम्पन्न होती है। पानी में नाना प्रकार की वनस्पतियाँ व जीव जन्तु भी पाये जाते है, जिनमें कुछ तो मछली के लिये लाभकारी होते है तथा शेष हानिकारक। मछली की वृद्धि, उत्पादकता, उत्पादन, बीमारी व स्वास्थ्य का तालाब के अजैविक व जैविक कारकों से अट्ट सम्बन्ध है एवं इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव जल कृषकों के उत्पादन व आर्थिक लाभ पर पड़ता है। अतः जल कृषकों को कार्प मछलियों की अधिक उपज के लिये निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये।
स्वास्थ लाभ-
मछली में लो फैट होता है और प्रोटीन की मात्रा बहुत अधिक होती है। इसमें कई तरह के विटामिनए खनिज और अन्य पोषक तत्व मौजूद होते हैं इसलिए मांसाहारी लोगों को जिन्हें मछली खाना पसंद है उन्हें इसका सेवन जरूर करना चाहिए। इससे आंखे बाल और त्वचा की सेहत अच्छी बनी रहती है। बच्चों की याद्दाश्त क्षमता को बढ़ाने और दिमाग तेज करने मदद करता है। मछली खाने से कैंसर होने का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है। ओमेगा.3 फैटी एसिड कैंसर से बचाव करता है। गर्भावस्था के दौरान महिलाएं मछली खाने से लाभ होता है। जिन पुरुषों में स्पर्म काउंट की प्रॉब्लम है वे यदि मछली खाएं तो उनके स्पर्म हेल्दी होने के साथ ही सक्रिय भी होते हैं।
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जैसै- 1. विस्तृत पालन विधि-
तकरीबन 1 हेक्टेयर या उससे अधिक क्षेत्रफल के तालाबों में कार्प मछलियों के पौंना या अगुलिकाओं का संचय चार से पांच हजार प्रति हेक्टेयर की दर से करते है। तालाब में अंगुलिकाओं को संचय करने के पहले जाल चलाकर जलीय वनस्पतियों, कीडे़ मकोड़े, अनचाही जीव जन्तुओं व मछली शत्रुओं को निकाल देते है। इस विधि में किसी प्रकार का खाद, उर्वरक या परिपूरक आहार नही दिया जाता है। इस विधि में लागत कम आती है तथा जल कृषक को मछली का उत्पादन 500 से 700 कि0ग्रा0/हे0/वर्ष प्राप्त होता है।
2. अधि सघन पालन विधि –
इस वधि में 0.5 हेक्टेयर क्षेत्रफल के आयताकार तालाब में जिसकी गहराई 2 से 3 मीटर हो अगुलिकाओं का संचय 5000 से 7000 प्रति हेक्टेयर करते है। इस विधि में मृदा प्रबन्ध, जल प्रबन्ध, आहार प्रबन्ध किया जाता है। संचय पूर्व अनचाहे पौधों, शत्रुओं, प्रति स्पर्धी जीव जन्तुओं का निवारण करते है। इस विधि से मछली का औसत उत्पादन 5000 कि0ग्रा0/हे0/वर्ष प्राप्त होता है।
3.सघन पालन विधि –
इस विधि में प्रायः 0.3-0.5 हेक्टेयर क्षेत्रफल के तालाबों में अगुलिकाओं का संचय 10,000 से 20,000 प्रति हेक्टेयर की दर से करते है। इस विधि में मृदा प्रबन्ध, जल प्रबन्ध, आहार प्रबन्ध, के अलावा जल की गुणवत्ता बनाये रखने के लिये वायु प्रवाहित यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इस विधि द्वारा 7000 कि0ग्रा0/हे0/वर्ष उत्पादन काफी प्राप्त होता है पर खर्च भी अधिक आता है।
मिश्रित विधि द्वारा मछली पालने वाले तालाब का क्षेत्रफल 0.5 से 5.0 हेक्टेयर तथा गहराई पूरे साल 1.5 से 2.0 मीटर होनी चाहिए।
तालाब की मिट्टी व पानी की गुणवत्ता की जाँच –
तालाब की जैविक परिस्थितिकी, मछलियों के जीवन जैविक क्रियाओं व उनके उत्पादन के अनुकूल है या नहीं इसके लिये सबसे पहले तालाब में उपस्थित पोषक तत्वों की मात्रा के घुलित आक्सीजन की स्थिति, विषैली गैसों की मात्रा तथा प्राकृतिक भोजन की स्थिति का ज्ञान आवश्यक है ताकि उसके अनुसार उचित प्रबन्धन करके उनमें गुणवत्ता सुधार किया जा सके। मिट्टी व पानी के जिन प्रमुख भौतिक व
रासायनिक गुणों की जांच करनी चाहिये व निम्न है –
मिट्टी की संरचना –
तालाब की मिट्टी तभी अच्छी मानी जाती है जब उसमें उपस्थित आवश्यक खनिज लवणों की उपलब्धता सदैव बनी रहे। एक आर्दश तालाब में न तो बलुई मिट्टी होनी चाहिये और न काफी चिकनी मिट्टी अन्यथा या तो पानी रिसता रहेगा या उसमें उपस्थित पोषक तत्व पानी में विसरित नहीं होगा। रेतीली व कंकरीली भूमि को छोड़कर छोटे कणों वाली मिट्टी जिसमें सिल्ट व क्ले कम से कम 60 प्रतिशत हो जल कृषि के उपयोग में लाई जा सकती है। मिट्टी की जल धारण क्षमता अच्छी होनी चाहिये।
मिट्टी की उर्वकता –
तालाबों की मिट्टी पोषक तत्वों की खान है एवं उससे पानी को पोषक तत्वों की प्राप्त होती है। मिट्टी से प्राप्त पोषक तत्वों के कारण ही तालाब में मछली का प्राकृतिक आहार, सूक्ष्म वनस्पति प्लवक (फाइटोप्लैकटान) व जीव सूक्ष्म प्लवक (जू. प्लैक्टान) बनता है।
पोषक तत्वों का पुर्नचक्रण –
मिट्टी अच्छी तभी मानी जाती है जब उसमें उपस्थित कार्बनिक पदार्थो का पुर्नचक्रण तीव्रता से हो तथा पोषक तत्व पानी में धीरे-धीरे विसर्जित हो। कार्बिनिक पदार्थो का खनिजीकरण न होने से वहां का वातावरण मछलियों में बीमारी फैलाने वाले सूक्ष्म जीवियों के अनुकूल होने लगता है। मिट्टी में कार्बनिक पदार्थो के पुर्नचक्रण न होने से वहां पर विषैली गैंसों जैसे हाइड्रोजन सल्फाइड, मीथेन, अमोनिया आदि की अधिकता हो जाती है, जिसका प्रभाव मछलियों की वृद्धि पर पड़ता है।
मिट्टी की उत्पादकता –
मिट्टी की उत्पादकता उसके पी0एच0, नाइट्रोजन, कार्बनिक कार्बन, कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात, फास्फोरस आदि के ऊपर निर्भर करती है। अतः मिट्टी का वैज्ञानिक प्रबन्ध करने के लिये इन कारकों का ज्ञान जल कृषक के लिये आवश्यक है। मिट्टी व पानी की अम्लीयता व क्षारीय दशा को बताने वाला सूचक पी0एच0 है जो उसकी उर्वरकता स्तर को बताता है। पी0एच0 मान 7 उदासीन अवस्था का सूचक है 7 के नीचे की अवस्था आम्लीय तथा ऊपर की अवस्था को क्षारीय माना जाता है। मछलियों के लिये अम्लीयता व अधिक क्षारीय अवस्था प्रतिकूल होती है। अच्छी उत्पादकता के लिये पी0एच0 7.0 से 8.0 उपयुक्त हेता है।
चूनाकरण –
चूना का उपयोग जल कृषि में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये किया जाता है। चूना मिट्टी के पी0एच0 को बढाता है, कार्बनिक पदार्थो का विघटन करता है तथा विषैली गैसों का बाहर निकाल कर तालाब की तली की विषाक्ता दूर करता है। यह रोगाणुओं को नष्ट कर वातावरण को रोग मुक्त भी करता है।
उर्वकीकरण –
उर्वरकों व कार्बनिक खादों की किस्म व उचित मात्रा मिट्टी की गुणवत्ता पर निर्भर होती है। अधिक मछली उत्पादन कार्बनिक खादों व अकार्बनिक उर्वरकों के प्रयोग से प्राप्त किया जा सकता है।
मिटटी की गुणवत्ता का असर मछली के उत्पादन पर पड़ता है। अतः नियमित अन्तराल पर उसकी जांच प्रयोगशाला में कराते रहना चाहिए।
जलीय तापमान –
मछलियों के शरीर का तापमान सदैव जलीय तापमान से प्रभावित होता है। जलीय तापमान कम होने से इनके शरीर का तापमान कम तथा अधिक होने से अधिक हो जाता है। कार्प मछलियों के लिये पानी का तापमान 24-30 डिग्री सें0 अनुकूल है। मछलियों में ताप जनित बीमारी, अधिक गर्मी व ठंड़क के दिनों में होती है। तालाबों में छाया की उचित व्यवस्था व पानी के वायुकरण से मछलियों को तापजनित समस्याओं से बचाया जा सकता है।
घुलित ऑक्सीजन –
मनुष्यों के लिये ऑक्सीजन गैस का जितना महत्व है उतना ही मछलियों के लिये भी है। मछलियाँ पानी में घुलित ऑक्सीजन अपने गलफडे़ द्वारा लेती है। ऐसे तालाबों में जहां जीव जन्तुओं, शैवाल व खरपतवार की अधिकता होती है, घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। ऑक्सीजन की कमी से मछलियों की सामुहिक मृत्यु हो सकती है। जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 5 मि0ग्राम प्रति लीटर से अधिक होनी चाहिए ताकि मछलियों को सांस लेने में कोई परेशानी न हो।
विषैली गैस –
मछलियों के स्वास्थ्य पर पानी में उपस्थित विषैली गैसों विशेषकर कार्बन डाई ऑक्साइड, अमोनिया, हाईड्रोजन सल्फाइड व मीथेन का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इन गैसों की अधिकता से उनकी मृत्यु भी हो सकती है।
प्राकृतिक आहार की उपलब्धता –
मछलियों की अधिक पैदावार के लिये उसमें उनके प्राकृतिक आहार, प्लवक का होना आवश्यक है। मछलियों की अच्छी पैदावार के लिये तालाबों में इनकी मात्रा 2 मि0लीटर प्रति 50 लीटर पानी में होनी चाहिए। यदि प्लवक की मात्रा कम हो तो तालाबों में गोबर, चूना, सिंगल सुपर फास्फेट व मुर्गी विष्टा की खाद का प्रयोग करना चाहिए।
जलीय पौधों का नियंत्रण –
पुराने तालाबों में प्रायः जलीय पौधों विशेषकर जलकुम्भी, स्पाइरोडेला, लेमना, एजोला, कुमुदनी, कमल, हाइड्रिला, नाजाज, आइपोमिया, टाइफा आदि वनस्पतियों की अधिकता होती है। जलीय पौधों भी उपस्थित होने कारण, तालाब की उत्पादकता में कमी आ जाती है, मछलियों का प्राकृतिक भोजन प्लवक का उत्पादन कम हो जाता है तथा मछली के प्रतिस्पर्धा रखने वाले एवं उन्हे हानि पहुंचाने वाले कीड़ों घोंघो, मछलियों व अन्य शत्रुओं की संख्या भी बढ़ती जाती है। जलीय पौधों का नियंत्रण शारीरिक श्रम व 2-4 डी0 नामक रसायन के प्रयोग द्वारा किया जा सकता है।
अवांछनीय व भक्षक मछलियों का नियंत्रण –
तालाब में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये उपस्थित अवांछनीय कीटों, भक्षक मछलियों व शत्रुओं को निकालना आवश्यक है क्योंकि ये जलजीव या तो संचित मछलियों से र्स्पधा करती है या उनका भक्षण करती है। अवांछनीय जीव जन्तुओं को नियंत्रण तालाबों को सुखाकर, पानी को पम्प से निकालकर या जाल चलाकर किया जाता है। ऐसे तालाबों से जहां से पानी का निष्कासन असम्भव हो महुआ की खली, ब्लीचिंग पाउडर या यूरिया तथा ब्लीचिंग पाउडर के मिश्रण का उपयोग कर किया जा सकता है।
कार्प समूह की मछलियों का मिश्रित पालन करके मछली उत्पादकों को तालाब से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये मिश्रित कार्प पालन विधि को उपयोग में लाना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें निम्न फायदा होता है –
कार्प बीजों की सरलता से उपलब्धता –
निषेचित अण्डों से लेकर 100 मि0मी0 माप तक कार्प मछली के बच्चां का व्यापारिक नाम बीज है। कार्प मछलियों के बीजों को उनकी आयु के अनुसार जीरा (स्पान-अण्डों से निकले 8मि0मी0 तक बच्चे), शिशुमीन या पौना (फ्राई-8मि0मी0 से 40मि0मी0के बच्चे) तथा अंगुलिकायें (फिंगरलिंग-40मि0मी0 के ऊपर तक के बच्चे) में बांटा गया है। कार्प बीजों को जलकृषक उत्प्रेरित प्रजनन कराकर स्वंय उत्पादित कर सकते है अन्यथा फिश सीड़ हँचरी से प्राप्त कर सकते है। ऐच्छिक प्रजातियों के बीज की निरन्तर उपलब्धता के कारण कार्प मछलियों की जल कृषि सरल है।
मछलियों की प्रजातियों का चयन –
जल कृषि के लिये कार्प मछलियों का चयन इस प्रकार करना चाहिये कि तालाब में उपलब्ध प्राकृतिक भोजन का पूरा सदु्पयोग हो सके। भाकुर (कतला कतला) व सिल्वर कार्प का आवास स्थल तालाब का ऊपरी सतह है भाकुर जन्तु प्लवकों को तथा सिल्वर कार्प वनस्पति प्लवकों को खाती है जिससे उनमें भोजन के लिये प्रतिर्स्पधा नहीं होती । तालाब के मध्यम स्तर में रहने वाली रोहू वनस्पति प्लवक, जैविक पदार्थ व पेरीफाइटान को खाती है। ग्रास कार्प जलीय वनस्पतियों को खाकर वृद्धि करती है। तालाब के तली में रहने वाली नैनी तथा कामन कार्प की खाने की आदत अलग-अलग है। अतः इस विधि द्वारा तालाब के सम्पूर्ण क्षेत्र में उपस्थित प्राकृतिक भोजन का सद्पयोग हो जाता है। तालाब में उपस्थित प्राकृतिक भोजन के सदुपयोग होने से जल कृषक का सम्पूरक आहार पर खर्च में कमी हो जाती है।