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परिचय –
भिण्डी देश के प्रायः सभी राज्यों में उगाई जाती है। भिण्डी को पाले से बहुत अधिक हानि होती है। इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइट्रेड, विटामिन एवं लवण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। गर्म मौसम की फसल होने के कारण देश के सभी राज्यों में इसकी बुवाई की जा सकती है।
भूमि एवं जलवायु –
भिण्डी के बीज के लिए उष्ण एवं नम जलवायु की जरूरत होती है। उचित जमाव के लिए 20-25 डि.सें. तापमान की आवश्यकता होती है। लगातार वर्षा इसकी फसल के लिए हानिकारक है। दिन का तापमान 42 डि.सें. से अधिक होने पर इसके फूल झड़ने लगते हैं। यह कई प्रकार की भूमि जिसमें पानी के निकास का उचित प्रबंधन हो, में उगाई जा सकती है। भुरभुरी दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश की मात्रा अधिक हो, इसके लिए उपयुक्त है। इसके लिए भूमि का पी.एच. मान 6.0.-6.8 होना चाहिए। इससे कम पी.एच. मान होने पर भूमि में चूना या डोलोमाइट मिलाकर बुआई करनी चाहिए।
उन्नतशील किस्में –
विभिन्न क्षेत्रों की भूमि, जलवायु आदि को ध्यान में रखते हुए बागवानी विभाग एवं अनुसंधान केन्द्रों द्वारा अनुमोदित भिण्डी की उन्नत प्रजातियों का चयन करें।
कुछ प्रजातियाँ निम्न प्रकार हैं-
ओपन पौलीनेटेड. वर्षा उपहार, पूसा सावनी, हिसार उन्नत, पंजाब.7, 8, पंजाब पद्मनी, प्रभानी क्रान्ति, अर्का गौरव, अर्का अभय, अर्का अनामिका, जी.ओ..2, वी. आर.ओकृ6 ।
संकर प्रजाती-
इण्डेन.23, 102, बी. एस. एस..594, हाईब्रिड.8, माहिको.10 आदि।
भूमि शोधन-
भूमिजनित फफूंद की रोकथाम हेतु खेत की तैयारी करते समय ट्राइकोडर्मा 4-5 कि.ग्रा. को 150-200 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर बुआई पूर्व जुताई के समय खेत में मिला दें। भूमि में जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ाने एवं उपजाऊ-शक्ति बढ़ाने हेतु जीवामृत/वेस्ट डिकम्पोजर का 500 लीटर प्रति हेक्टे. का प्रयोग करें।
बीज की मात्रा एवं बीजशोधन-
भिण्डी का बीज गर्मी की फसल के लिए 18-20 कि.ग्रा. तथा बरसाती फसल में बुआई करने हेतु 8-10 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से पर्याप्त होता है। बीज को बीजामृत या पचंगव्य के 3 प्रतिशत घोल में 30 मिनट डुबोकर बीज का जैविक उपचार करें या ट्राईकोडर्मा जैविक फफूंदीनाशक 8-10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से शोधित कर बुआई करें।
बुआई का समय एवं तरीका-
गर्मी की फसल के लिए फरवरी-मार्च तथा बरसात की फसल के लिए जून-जुलाई माह बुआई का समय उपयुक्त समय है। भिण्डी की बुआई डिबलिंग द्वारा खेत में सीधे या मेंढ़ों पर लाइनों में की जा सकती है। प्रजातियों के फैलाव के अनसुर लाइन तथा पौधे का फासला 45×30 सेमी. तथा 60×30 सेमी. रखना चाहिए।
सिंचाई –
फरवरी-मार्च में बोई गई फसल में जमाव होने के बाद सिंचाई करें तथा 8-10 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें। जून-जुलाई में बोई जाने वाली फसल में वर्षा के अनुसार सिंचाई करते रहें।
खाद एवं जैविक उर्वरक –
पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए 100-120 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद, 40-50 कुन्टल नादेप कम्पोस्ट/20 कुन्टल वर्मी कम्पोस्ट प्रति हेक्टे. की दर से प्रयोग करें। इसके अतिरिक्त अजेटोबैक्टर/एजोस्पोरिलम/पी.एस.बी. जीवाणु 3.4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से भूमि में बुआई पूर्व प्रयोग करें।
भूमि में सिंचाई के साथ 100 ली. गौ.मूत्र/जीवामृत 500 ली. या वेस्ट डिकम्पोजर घोल 500 ली. का 2-3 बार प्रयोग करें। अच्छी एवं गुणवत्ता पूर्ण पैदावार लेने के लिए पंचगव्य या वर्मीवाश के 5 प्रतिशत घोल का 2-3 बार छिड़काव करें।
खरपतवार प्रबंधन –
भिण्डी में साधारणतः 3-4 निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली निकाई बुआई के लगभग 20-25 दिन बाद तथा दूसरी व तीसरी निकाई-गुड़ाई क्रमशः 35-40 एवं 50-55 दिन बाद करनी चाहिए। यदि खेत में खरपतवार की सख्ंया अधिक है तो चौथी गुड़ाई 70 दिन बाद करें। दूसरी गुड़ाई के दौरान पौधों पर मिट्टी चढ़ा देना आवश्यक है। फसल में पलवार (मल्चिंग) का प्रयोग करने से खरपतवार पर नियंत्रण के साथ-साथ सिंचाई के पानी की बचत की जा सकती है।
कीट प्रबंधन-
फल एवं तना छेदक यह एक हानिकारक सुण्डी है जो फलों एवं तनों में छेद कर देता है जिससे फल खराब हो जाते हैं।
प्रबंधन-
- गेंदे को ट्रैप क्रोप के रुप में लगाकर कीटों की रोकथाम करना।
- फल छेदक से प्रभावित फलों को एकत्र करके नष्ट कर देना।
- फिरोमैन ट्रैप लगाकर कीटों की निगरानी एवं रोकथाम करना।
- निमोली सत 5 प्रतिशत/नीमास्त्र/तरल कीटनाशक 10 प्रतिशत का 15 दिन के अन्तराल पर 2.3 छिड़काव।
सफेद मक्खी/हरा तेला/थ्रिप्स/माइट.ये सभी रस चूसने वाले हानिकारक कीट हैं जो पत्तियों व पौधों से रस चूसकर उसको कमजोर कर देते हैं। इनके द्वारा चिपचिपा पदार्थ छोड़ने के कारण पत्तियां में श्वसन एवं भोजन बनाने की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है। सफेद मख्खी द्वारा पौधों में ’लीफ कर्ल वायरस’ नामक रोग का संक्रमण हो जाता है।
प्रबंधन –
- खरपतवार एवं परिपोषित पौधों को नष्ट करना।
- पीले चिपचिपे नेट लगाकर कीटों पर नियंत्रण रखना।
- निमोली सत 5 प्रतिशत या नीम का तेल 3 प्रतिशत या छाछ तथा गौ.मूत्र (500 मि. ली./10 ली. पानी) का छिड़काव।
- अधिक प्रकोप होने पर वर्टीसिलियम लैकानी/मैटाराइजियम 5.10 ग्रा./ली. पानी की दर से छिड़काव।
रोग प्रबंधन –
आर्द्रगलन एवं उक्टा रोग-
यह एक फफूंदी तथा जीवाणुजनित रोग है जो पौधे की जडों को प्रभावित करके पौधों को नष्ट कर देता है। गर्मी की गहरी जुताई, फसल चक्र, फसल अवशेष नष्ट करना, बीज, पौध एवं भूमि का जैव फफूंद नाशकों द्वारा शोधन एवं भूमि में नीम की खली का प्रयोग।
लीफ कर्ल-
यह एक प्रकार का वायरस रोग है तथा इसका संक्रमण सफेद मख्खी द्वारा होता है। इसमें पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं।
येलो वेन मोजक-
यह एक वायरस रोग है तथा इसका संक्रमण सफेद मख्खी, जैसिड एवं अन्य रस चूसने वाले कीड़ों द्वारा होता है। इस रोग में पत्तियों की नसें पीले रंग की पड़ जाती हैं तथा पत्तियों का हरापन समाप्त हो जाता है।
प्रबंधन-
- स्वस्थ बीज, रोगरोधी किस्में, खरपतवार, परपोषी पौधों तथा बीमारी ग्रस्त पौधों को नष्ट करना।
- कीटों से सुरक्षा के लिए पौधशाला में नेट लगाना, खेतों में पीले चिपचिपे ट्रैप लगाना।
- कीटों के नियंत्रण हेतु 5 प्रतिशत नीमोली सत या 3 प्रतिशत नीम के तेल का छिड़काव करना।
- अधिक प्रकोप होने पर वर्टीसिलियम लैकानी/मैटाराइजियम 5.10 ग्रा./ली. पानी की दर से छिड़काव।
तुड़ाई, सफाई, ग्रेडिगं, पैकिंग एवं विपणन –
भिण्डी के फलों की तुड़ाई 4.5 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए।
खेत से भिण्डी तोड़ने के पश्चात् रोग ग्रस्त और सडे़-गले फलों को छाँटकर अलग करने के बाद शेष फलों को ग्रेड (बड़े, मध्यम एवं छोटे आकार) में रखें। बाजार में भेजने के लिए फलों को साफ करके लकड़ी के क्रेटस का उपयोग करना लाभदायक व सुविधा जनक रहता है।
बीज उत्पादन –
भिण्डी में परपरागण होता है। अतः शुद्ध बीज प्राप्त करने के लिए कम.से.कम दो किस्मों के बीच में 200 मीटर पृथक्करण दूरी रखना अनिवार्य है। बीज उत्पादन करने वाले पौधों की विशेष देखभाल जैसे.सिंचाई, निकाई.गुड़ाई, खरपतवार नियंत्रण, रोग एवं कीट नियंत्रण आवश्यकतानुसार समय पर करना चाहिए। यदि कोई पौधा किसी अन्य किस्म, छोटी.छोटी पत्तियों अथवा पीत सिरा मौजेक या पीला रोग वायरस ग्रस्त दिखाई दे तो उसे समय-समय पर होने वाले निरीक्षण के समय या फूल आने से पहले तुरन्त उखाड़कर फेंक देना चाहिए। जब फलों का रंग पकने के बाद पूर्णतया बादामी हो जाए तो फलों को दरांती से काटकर इकट्ठा कर लें। यह प्रक्रिया 3-4 बार करनी चाहिए। पके हुए फलों को पक्के फ़र्श पर अच्छी तरह से सुखा लें। सुखाने के बाद फलों को डण्डे से पीटकर उसके बीज निकाल लें और इसके पश्चात् बीज को धूप में सुखाएं बीज को तब तक सुखाया जाए जब.तक बीज में नमी की मात्रा 9-10 प्रतिशत रह जाए। सूखे हुए बीज को शोधित करके किसी सूखी काँच की बोतल या डिब्बे आदि में रखकर और उसका ढक्कन बन्द करके किसी सुरक्षित और नमी रहित स्थान पर रखना चाहिए।