लीची में लगने वाले कीट-व्याधियों से बचाव कैसे करें| How to protect from Pests and diseases in litchi?

परिचय-

लीची उपोष्ण जलवायु प्रदेश का एक सदाबहार वृक्ष है। इसके फल अपने मनमोहक सुगंधयुक्त स्वाद, आकर्षक रंग एवं पौष्टिक गुणों के लिये मशहूर है। देश में सर्वोत्कृष्ट लीची फलों का उत्पादन होता है, जिसकी मांग देश के विभिन्न क्षेत्रों में है। यहाँ से ताजे फलों का निर्यात यूरों तथा खाड़ी के देशों में किया जाता है। इसके ताजे फलों एवं प्रसंस्कृत उत्पाद के निर्यात की असीम सभ्भावनाएं है। लीची पौध एवं फल विभिन्न प्रकार के रोग एवं कीट से ग्रसित हो जाते हैं फलस्वरूप फलों के उत्पादन में कमी आती है और गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। बागनों को उनकी महेनत के अनुरूप लाभ नहीं मिल पाता है। अत्याधिक कीट एवं व्याधियों की दशा में बागवानों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। अतः वर्तमान परिपेक्ष में बावानों को लीची में समय-समय पर लगने वाले कीट के बारे में जानकारी होना आवश्यक हो जाता है ताकि समय पर प्रभावी प्रबंधन किया जा सके एवं फलों को नुकसान होने से बचाया जा सके। जहरीलरसायनिक दवाओं के निरन्तर, अधिकाधित प्रयोग के फलस्वरूप लोगों को दैनिक जीवन में कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके दुष्प्रभाव मानव एवं जीव जन्तुओं के ऊपर, पर्यावरण प्रदूषण, कीट में दवाई के प्रतिरोधक क्षमता का विकास, कम महत्व वाले कीटों का भीषण रूप धरण करना एवं उपयोगी परजीवी एवं परभक्षी कीटों का नाश प्रमुख रूप से सामने आये है।

कीटनाशी रसायनों के दुष्परिणामों को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि कम से कम रसायनिक दवाओं का प्रयोग किया जाए एवं कीटों की रोकथाम के लिए दूसरे उपायों जैसे जैव कीटनाशी (बायोपेस्टीसाइड), कृषिगत क्रियायें यान्त्रिक उपायों आदि को जहां तक सम्भव हो आनाये। इसलिए वर्तमान परिस्थिति में बागवानों को समेकित कीट प्रबंधन के बारे में जानकारी होना आवश्यक हो गया है। इसमें दो या दो से अधिक नियंत्रण विधियों को समन्वित रूप में इसक प्रकार प्रयोग करते है। ताकि हानिकारक कीटों की संख्या में इतनी कमी आ जाये कि वे फसल को आर्थिक हानि न पहुंचा सकें।

Leechi farming
Leechi farming

गर्मियों के दिनों में लीची खाने से स्वास्थ में लाभ –

लीची में विटामिन सी भी भरपूर मात्रा में पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम लीची में विटामिन सी की मात्रा 71-5 मिलीग्राम होती है जो प्रतिदिन की आवश्यकता का 119 प्रतिशत है । बी.कॉम्प्लेक्स और बीटा कैरोटीन से भरपूर लीची फ्री रेडिकल्स से रक्षा करती हैए साथ ही मेटाबॉलिज्म को भी नियंत्रित करती है। ऑथ्राईटिस में लीची खाने से लाभ होता है और दमा के मरीजों के लिए भी लीची बेहद लाभदायक फल है।इसके अलावा यह रक्तसंचार को बेहतर करने में सहायक है । लीची में एंटी.ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं जो आपकी त्वचा को स्वस्थ और खूबसूरत बनाए रखने में सहायक हैं। इसके साथ ही लीची सूरज की हानिकारक यूवी किरणों से बचाव करने में भी लीची बेहद फायदेमंद है। इसमें मौजूद फाइबर की अत्यधि‍क मात्रा आपके पाचन तंत्र को बेहतर बनाने के साथ ही सीने और पेट की जलन को भी शांत करती है।इसमें कॉपर भी भरपूर मात्रा में पाया जाता है जो लाल रक्त कणिकाओं का निर्माण करता है। लीची में एंटी-ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैंए जो आपकी त्वचा को स्वस्थ और खूबसूरत बनाए रखने में सहायक हैं।

प्रमुख कीट, लक्षण एवं उनका प्रबंधन –

लीची मकड़ी (लीची माइट) : एसेरिया लीची केय्फर-

लक्षण –

लीची माइट “ अर्थोपोडा“ समुदाय की सूक्ष्म मकड़ी है। इसका शरीर बेलनाकार सफेद और चमकीला होता है तथा चार जोड़े पैर होते है। इस सूक्ष्मदर्शी मकड़ी के नवजात एवं वयस्क दोनों ही कोमल पत्तियों की निचली सतह, टहनियों तथा पुष्पवृंत से चिपककर लगातार रस चूसते रहते है। रस चूसने से ग्रसित उत्तक उत्तेजित हो जाते है फलस्वरूप पत्तियां मोटी एवं लेदरी होकर सिकुड़ जाती है और इनकी निचली सतह पर मखमली (वेलवेटी) रूआंसा निकज जाता है जो बाद में भूरे या काले रंग में परिवर्तित हो जाता है। प्रभावित पत्तियों में गडेढ़ बन जाते है। अक्रान्त पत्तियों मिलकर गुच्छे बना लेते है। पत्तियां परिपक्व होने के पूर्व गिरने लगती है। पौधे कमचोर हो जाते है और प्रभावित टहनियों में पुष्पन एवं फलन नहीं होता है या कम होता है। मखमली इरिनीयम उच्च ताप, वर्षा एवं आर्द्रता से वयस्क मकड़ी को सुरक्षा प्रदान करती है।

प्रबंधन-

  • जून के महीने में फल तुड़ाई उपरान्त ग्रसित टहनियों को कुछ स्वस्थ हिस्से के साथ काट कर जला देना चाहिए।
  • सितम्बर-अक्तूबर में नये कोपलों के आगमन के समय डयकोफॉल या केलथेन 1.25 मि.ली/लीटर पानी के घोल का 7-10 दिनों के अन्तराल पर दो छिड़काव करना चाहिए।
  • दिसम्बर-जनवरी में कोपलों/पुष्पवृंत के आने के पहले फिर से ग्रसित टहनियें को काटकर जला देना चाहिए।
    फरवरी महीनें में कोपलों/पुष्पवृंत आने के समय डयकोफॉल 1.25 मि./ली. पानी के घोल का 7-10 दिनों के अन्तराल पर दो छिड़काव किया जाना चाहिए।

लपेटक कीट (लीफ रोलर) : प्लेटीपेप्लस एपरोबोला –

लक्षण –

इस कीट का पिल्लू पत्तियों को लम्बवत लपेटकर जाले बनाते है और अन्दर ही अन्दर उसकी हरियाली को खाता है फलस्वरूप प्रभावित पत्तियां समय से पूर्व ही सूखकर गिरने लगती हैं। बाग की उपज क्षमता कम हो जाती है। नई पत्तियों पर इसके आक्रमण को आसानी से देखा जा सकता है।

प्रबंधन –

फास्फोमिडॉन 85 प्रतिशत ई.सी. दवा का 0.5 मि.ली./ली. पानी के घोल का दो छिड़काव 7-10 दिनों अन्तराल पर करना लाभप्रद है।
टहनी छेदक (शूट बोरर) : क्लुमेसिया ट्राँसभरसा

लक्षण –

वयस्क मादा बहुत छोटी होती है जा नवजात पत्तियों के रीढ़ पर उत्तकों के बीच अंडे देती है। अंडो से उत्तकों के अंदर ही अंदर निकलकर इसके पिल्लू पौधों की नई कोपलों के मुलयम टहनियों में प्रवेश कर उसके भीतरी भाग को खाते है, जिसे प्रभावित टहनियाँ मुरझाकर सूख जाती हैं साथ ही साथ पौधें बढ़वार रूक जाती है। आक्रमण की तीव्रता में पौधें के अन्द पोषक तत्वों का प्रवाह अवरूद्ध हो जाते है परिणाम स्वरूप पुष्पन एवं फलन नहीं होता है। इस कीट का भी प्रकोप बहुतायत से सितम्बर-अक्तूबर और जनवरी-फरवरी के फ्लश एवं पुष्पवृंत पर देखा जा सकता है।

प्रबंधन-

  • फल तुड़ाई के उपरान्त खेत की हल्की जुताई कर पेड़ों में मानसून पूर्व पोषक तत्व आवश्यक दे दें ताकि जुलाई अगस्त में ही नयी कोपलें आ जाये।
  • इस कीट से प्रभावित टहनियों को काटकर जला देना चहिए।
  • साइपमेथ्रीन 4.0 मि.ली/ 10 ली. पानी या इन्सोल्फान 2 मि.ली./ली. पानी घोल को नई कोपलों के आने का समय एक सप्ताह के अन्तराल पर दो छिड़ाकाव करने से पौधों का बचाव किया जा सकता है।
  • छिलका खाने वाले पिल्लू : इन्डरबेला टेट्राओनीस/इन्डरबेला क्वाड्रिनोटाटा

लक्षण –

यह एक देशव्यापी कीट है जो वृक्षों के मुख्य तनों और शाखाओं में छेद कर निर्वाह करता है। इसके पिल्लू बड़े आकार के होते है जो रात्रि में अहपने विष्टा से बनाये गये जालीदार झिल्लियों से निकलकर पेड़ों के छिलके खाकर अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं एविं दन में छिपकर तनों या शाखाओं में में किये गये छिद्र के अन्दर रहते है। पुराने एवं दोषपूण्र रख रखाव वाले बाग में सका आक्रमण अधिक होता है। लीची अतिरिक्त ये दूसरे फलदार पौधों, वन वृक्षों एवं फूलदार पौधों को भी क्षति पहुंचाते है। एक वर्ष में इसकी एक पीढी होती है। कीट का प्रकोप मई-जून में मानसून पूर्व वर्षा के साथ मॉथ निकलने से प्रारंभ होता है। मादा पुराने छिलकों के टूटे-फूटे भाग में अंडे देती है तथा इसके लार्वा प्ररोहों, शाखाओं एवं मुख्य तने में रहने के लिए छेद करते है। प्यूपा मुख्य तने में रहता है। इसके पिल्लू अपने बचाव के लिए टहनियों के उपर अपनी विष्ठा एवं खाये हुये छाल के टुकड़ों को मिलाकर जाला बनाते है। इकसे प्रकोप से टहनियां कमजोर हो जाती और कभी-कभी टूटकर गिर जाती है। प्रभावित टहनियों की वृद्धि रूक सी जाती है। इसक प्रकार फलों के गुणवत्ता उत्पादन में कमी हो जाती है।

प्रबंधन –

पेड़ के तनों और शाखाओं में टूट-फूट ओन से रोकने का प्रबंध करें। सूखी टहनियां या सड़े गले ठूंठ को साफ कर दे।
जुलाई-अगस्त में तने एवं टहनियें पर लग जालों को साफ करके प्रत्ये छिद्र में लम्बा तार (साइकिल स्पोक) डाल कर खुरचने से कीट के पिल्लू मर जाते है। प्रत्येक छिद्र के अन्दर मिट्टी का तेल (किरासन) या पेट्राल या फिनाइल में भीगी हुई रूई को ठूंसकर भर दे एवं छिद्रों के ऊपर से गीली मिट्टी के लेप से बंद कर दे। इस प्रकार वाष्पीकृत गंध के प्रभाव से पिल्लू मर जाते है।
प्रत्येक छिद्र में डी.डी.वी.पी. या नुवान 5 मि.ली./ली. पानी का घोल तने में किये गये छिद्र में सिरिंच की सहायता से डालकर छिद्र को गीली मिट्टी से बन्द कर भी कीट को नियंत्रित किया जा सकता है।
कीड़े से बचाव के लिए बगीचे को हमेशा साफ-सुथरा और स्वस्थ रखना चाहिए।