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पचिय-
मटर का रबी मौसम की सब्जियों में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रायः सर्दियों में इसकी मांग बढ़ जाती है। भण्डारण किये गये मटर का प्रयोग वर्षभर किया जाता है। फसल चक्र को अपना कर खेती की जाए तो इससे भूमि उपजाऊ बनती है। मटर में मौजूद राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक होता है। यदि मटर की बुवाई अक्टूर व नबंवर महीने के मध्य इसकी अगेती किस्मों की खेती की जाये तो अधिक पैदावार के साथ ही भूरपूर लाभ कमाया जा सकता है। मटर की उपज लगभग 1 हेक्टेर से लगभग 8-10 टन प्राप्त की सकती है।
भूमि एवं जलवायु –
यह रबी की मुख्य फसल है। जिसे वर्षा के तुरंत बाद लगाया जाता है। इसके लिए औसत तापमान 15-25 डि.सें. उपयुक्त है। दोमट या हल्की दोमट मिट्टी जिसमें जैविक पदार्थों की अधिकता हो, मटर की खेती के लिए अच्छी मानी जाती है। अच्छी जल निकास वाली समतल व उपजाऊ जमीन में अधिक उत्पादन होता है। अधिक अम्लीय तथा क्षारीय भूमि में इसको नहीं उगाया जा सकता है। इसके लिए सामान्य पी.एच. 5-5,6-8 होना चाहिए।
खेत की तैयारी.खेत की 2-3 बार जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी कर लें। अन्तिम जुताई के समय गोबर की खाद की निर्धारित मात्रा को खेत में मिला दें तथा खेत को छोटी.छोटी क्यारियों में बाँट लें।
उन्नतशील किस्म –
क्षेत्र एवं जलवायु के अनुसार बागवानी विभाग/अनुसंधान केन्द्रों द्वारा अनुमोदित किस्मों का चयन करना चाहिए।
भूमि शोधन –
खेत को अच्छी तरह से तैयारी करने के बाद छोटी.छोटी क्यारियों में विभाजित करें। मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने एवं भूमि जनित फफूँदी रोगों की रोकथाम हेतु ट्राइकोडर्मा से संवर्धित गोबर की खाद को मिलाएं उसके बाद बुआई करें। इसके बाद जीवामृत/वेस्ट डिकम्पोजर 500 लीटर प्रति हेक्टे. का प्रयोग करें।
बीज की मात्रा एवं बीज शोधन –
मटर की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 80-100 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टे. बीज की बुआई करें। अगेती मटर में बुआई के समय 10 प्रतिशत बीज की मात्रा बढ़ा दें। रोगों की रोकथाम हेत 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचार करें। इसके साथ.साथ बीज को राइजोबियम एवं पी.एस.बी. कल्चर 20 ग्राम प्रति किलो बीज के द्वारा उपचारित करके बीज की बुआई करें।
बुआई का समय एवं विधि –
अलग.अलग क्षेत्रों में विभागीय सिफाशिं के अनुसार दिए गए बुआई के समय के अनुसार बुआई करें। प्रायः इसकी बुआई सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर/नवंबर के प्रथम सप्ताह तक की जाती है। बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। बीज की बुआई हल द्वारा करें तथा कतारों से कतारों की दूरी 30-45 सेमी. एवं पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सेमी. रखें। बीजों को 3-4 सेमी. से अधिक गहराई पर न बोएं अन्यथा जमाव अच्छा नहीं होगा।
खाद एवं जैविक उर्वरक –
मटर की उन्नतशील प्रजातियों के लिए 40-50 कि.ग्रा. नत्रजन, 50-60 कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 50-60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टे. की आवश्यकता होती है। इनकी पूर्ति हेतु खेत की तैयारी के समय 50-60 कि्ंव. सड़ी गोबर की खाद अथवा 20-25 कि्ंव. कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट प्रति हेक्टे. की दर से अच्छी तरह मिट्टी में मिलाएं। फफूंद रोगों से बचाव हेतु गोबर की खाद में 3.4 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा मिलाकर प्रयोग करें। जैव उर्वरक (राइजोबियम, पी.एस.बी.) 3-4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. की दर से 200 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर पूरक खाद के रूप में भूमि में प्रयोग करें। पहली निकाई.गुडा़ई के समय रोपित पौधों में वर्मी कम्पास्ट का बुरकाव करें। सिंचाई के साथ जीवामृत घेल 300-400 लीटर घोल का प्रयोग करें।
सिंचाई-
मटर में हल्की सिंचाई करनी चाहिए। पहली सिंचाई फूल निकलते समय बोने के 45 दिन बाद तथा दूसरी आवश्यकता पड़ने पर फली बनते समय बुआई के 60 दिन बाद करनी चाहिए।
निकाई.गुडाई एवं खरपतवार प्रबंधन –
खरपतवार प्रबंधन हेतु फसल की निकाई.गुडाई करना आवष्यक है। पहली निकाई डेढ़ महीने बाद करें। यदि आवश्यक हो तो दूसरी गुडाई करें।
कीट प्रबंधन मटर के मुख्य कीट एवं जैविक प्रबंधन की विधियां निम्न प्रकार हैं-
फल छेदक. यह बहुत ही हानिकारक सुण्डी है जो मुख्य रुप से फलों में छेद करके बहुत नुकसान पहुचाते हैं।
प्रबंधन –
- गर्मी में खेत की गहरी जुताई करके कीट की विभिन्न अवस्थाओं को नष्ट करना।
- गेंदे को ट्रैप क्रॉप के रुप में लगाकर सूत्र कर्मी, फल छेदक आदि कीटों की रोकथाम करना।
- फेरोमैन ट्रैप लगाकर फल छेदक कीट की निगरानी एवं रोकथाम करना।
- निमोली शत 5 प्रतिशत तथा तरल कीटनाशक 10 प्रतिशत का 15 दिन के अन्तराल पर 2.3 छिड़काव।
- अग्निअस्त्र 3.5 प्रतिषत घोल का घोल का छिड़काव करें।
सुरंगी कीट (लीफ माइनर)-
इसकी मादा सुण्डी पत्ती की ऊपरी व निचली सतह के बीच अण्डे देती है। सुण्डिया पत्ते के हरे भाग को खाकर सुरंगों का जाल बिछा देती हैं। इसकी रोकथाम हेतु परिपोषित पौधों तथा कीट से प्रभावित पत्तियों के तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। निमोली सत 5 प्रतिषत या अग्निअस्त्र 3 प्रतिषत घोल का छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
चेपा/माहू –
यह रस चूसने वाला हानिकारक कीट हैं। जो पत्तियों व पौधों से रस चूसकर उसको कमजोर कर देता है।
प्रबंधन.खरपतवार एवं परिपोषी पौधों को नष्ट करना, पीले चिप.चिपे (येलो स्टीकी) ट्रैप लगाना, निमोली सत 5 प्रतिशत या नीम तेल 3 प्रतिशत या छाछ तथा गौमूत्र (1 ली./12.15 ली. पानी) का छिड़काव।
रोग प्रबंधन –
उक्टा एवंज जड़ गलन रोग. फफूंदी तथा जीवाणु जनित रोग हैं तथा पौधे की जडों को प्रभावित करके पौधों को नष्ट कर देता है। इसके प्रबंधन हेतु रोगरोधी किस्मों का चुनाव, गर्मी की गहरी जुताई, फसल चक्र, फसल अवशेष नष्ट करना, बीज, पौध एवंभूमि का जैव फफूंदनाशकों द्वारा शोधन एवंभूमि में नीम की खली का प्रयोग करना चहिए।
चूर्ण आसिता (पाउडरी मिल्डयू). इसके प्रकोप से पत्तियों तने तथा फलों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है तथा पीले पील होकर कमजोर हो जाते हैं। फलियां कम बनती हैं तथा दाने का आकार घट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु रोगरोधी किस्मों तथा अगेती किस्मों का चुनाव करें, फसल चक्र अपानएं, रोगी पौधों को नष्ट कर दें तथा नीम के काढ़े एवं गऊ.मूत्र का मिश्रण तैयार करके छिड़काव करें।
फलों की तुडाई, सफाई, पैकिंग एवं विपणन –
मटर के पौधों में 40-45 दिन बाद फली आने लगती हैं, इसके 10-15 दिन बाद फलियों में दाना भरने पर इनकी तुड़ाई कर लेनी चाहिए। 8-10 दिन के अन्तर पर तुड़ाई करें। खेत से मटर तोड़ने के पश्चात रोग ग्रस्त, सडे.गले आदि फलियों को छांटकर अलग कर दें तथा आकार के अनुसार ग्रेडिंग करें। बाजार में भेजने के लिए फलों को साफ करके लकड़ी के क्रेट्स का उपयोग करना लाभदायक व सुविधाजनक रहता है।
कितनी हो सकती है कमाई –
बाजार में सामान्यतरू मटर के भाव 30 -50 रुपए प्रति किलो के हिसाब से होते हैं। यदि औसत भाव 30 रुपए प्रति किलो भी लगाए तो एक हेक्टेयर में 70 हजार रुपए तथा इस प्रकार यदि 5 हेक्टेयर में इसकी बुवाई की जाए तो एक बार में 3 लाख 50 हजार रुपए की कमाई की जा सकती है। बता दें कि मटरए गेहूं और जौ के साथ अंतरू फसल के रूप में भी बोई जाती है। हरे चारे के रूप में जई और सरसों के साथ इसे बोया जाता है। इस प्रकार आप अन्य फसलों के साथ इसकी बुवाई कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।