Table of Contents
परिचय –
भारत विश्व में सबसे अधिक धान उगाने वाला देश है तथा दक्षिण में केरल प्रदेश से लेकर उत्तर में जम्मू-कश्मीर तक उगाया जाता है।धान संसार में सबसे अधिक उगाई जाने वाली तीन मुख्य फसलों में से एक है।
भूमि एवं जलवायु –
धान उष्ण और नम जलवायु की फसल है तथा फसल अवधि में औसतन 20-25 डिग्री. से.ग्रे. तापमान उपयुक्त माना गया है। यह प्रायः सभी प्रकार की भूमि जिनमें अधिक समय तक पानी रोकने की क्षमता है, में आसानी से उगाया जा सकता है। मटियार मटियार दोमट तथा दोमट भूमि इसके लिए उपयुक्त है। यह 5.8 पी.एच. वाली भूमि में उगाया जा सकता है।
उन्नत किस्में –
प्रत्येक राज्य में भूमि, जलवायु तथा सिंचाई के साधनों के अनुसार अलग.अलग प्रजातियाँ बोई जाती हैं। अतः राजकीय कृषि विभाग, कृषि विश्वविद्यालय या कृषि अनुसंधान केन्द्र द्वारा संस्तुत उन्नत किस्मों का चयन करें।
सिंचित मैदानी क्षेत्रों में धान की प्रचलित उन्नत किस्में निम्न प्रकार हैं –
- पूसा आर.एच..10 (संकर प्रजाति)
- पूसा सुगंध.2, पूसा सुगंध.3
- बासमती किस्में.बासमती.370
- पूसा बासमती न. 1
- पूसा बासमती 1121
- पूसा 1460
धान की बुआई –
धान को लगाने के दो मुख्य तरीके हैं –
1. सीधी बुआई. खेत को तैयार करके धान की सीधे बुआई की जाती है। यह तरीका कम सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाया जाता है।
2. रोपाई विधि.सिंचित क्षेत्रों में धान मुख्य रुप से रोपाई विधि द्वारा लगाया जाता है। पहले धान की नर्सरी तैयार की जाती है। 24-25 दिन बाद धान की रोपाई कर दी जाती है। खेत की गहरी जुताई करके दो-तीन बार हैरो चलाकर खेत में पड़े हुए फसल.अवशेषों को अच्छी प्रकार से भूमि में मिलाएँ। गोबर की खाद/अन्य जैविक खाद/जैव उर्वरक आदि को खेत में मिलाकर पानी भर दिया जाता है। खेत में दो.तीन बार पडलिंग करके नर्सरी से धान के पौधों को उखाड़कर उचित फासले पर रोपाई कर दी जाती है।
सामान्य धान की नर्सरी कैसे तैयार करें ?
सिंचित क्षेत्रों में धान की खेती के लिए समय से तैयार की गई स्वस्थ पौध की आवश्यकता होती है। स्वस्थ पौध से ही फसल का आरंम्भिक विकास एवं उत्पादन अच्छा होता है। एक हेक्टे. खेत की रोपाई हेतु लगभग 1000 वर्गमीटर पौध क्षेत्र (नर्सरी) की आवश्यकता होती है।
नर्सरी हेतु खेत का चुनाव एवं तैयारी –
पौधाशाला हेतु जल स्रोत के निकट खुले खेत का चयन करना चाहिए जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो। खेत की गहरी जुताई करके 15-20 दिन के लिए छोड़ दें तथा पलेवा करके खेत की तैयारी करें। यदि पलेवा करके सूर्यताप विधि से सोलेराइजेशन कर दिया जाए तो नर्सरी में कीट, बीमारी तथा खरपतवारों की सख्ंया में आश्चर्यजनक रूप से कमी आती है।
भूमि-शोधन –
नर्सरी में बीज की बुआई करने से पूर्व भूमि में रोगजनित फफूंदी, हानिकारक कीट आदि का नियंत्रण करने हेतु उपचार करना आवश्यक है। इसके लिए नीम की खली 8.10 क्विंटल प्रति हेक्टे., बिवेरिया बेसियाना 3.4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. तथा ट्राइकोडर्मा 4.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. को गोबर की खाद में मिलाकर प्रयोग करना चाहिए। भूमिशोधन के पश्चात् खेत में 1.25 मीटर चौड़ी तथा 8.10 मी. आवश्यकतानुसार लंबी क्यारियाँ बनाकर इनमें उचित मात्रा में सड़ी गोबर की खाद/जैव उर्वरक को भूमि में ठीक प्रकार से मिला देना चाहिए।
बुआई का समय –
विभिन्न क्षेत्रों में भूमि, जलवायु, सिंचाई के साधनों तथा प्रजातियों के अनुसार धान की बुआई अलग.अलग समय पर की जाती है। अतः राजकीय कृषि विभाग, कृषि विश्वविद्यालय या कृषि अनुसंधान केन्द्र की सिफारिश अनुसार ही चयनित उन्नत किस्मों की बुआई करनी चाहिए। धान की बुआई पर्याप्त नमी होने पर करनी चाहिए।
मैदानी क्षेत्रों में मोटे धान में पौध डालने का समय मई के अंतिम सप्ताह से 15-20 जून तक तथा रोपाई 15-30 जून तक कर देनी चाहिए। संकर प्रजातियों में पौध डालने का समय 1.15 जून तथा रोपाई 15 जून से 10 जुलाई तक रखना चाहिए। सुगंधित प्रजातियों की पौध 15-30 जून तथा रोपाई 1 जुलाई से 10 जुलाई के मध्य कर देनी चाहिए।
बीज दर एवं बीज उपचार –
मोटे धान की प्रजातियाँ : 25- 30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे.
संकर प्रजातियाँ : 15- 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे
सुगंधित प्रजातियाँ : 12- 15 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. 35
बीज-शोधन –
चयनित प्र्रजाति के बीज को बीजामृत घोल या 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास प्रति किलो बीज की दर से घोल बनाकर 10.12 घंटे तक पानी में भिगोएँ। शोधित बीज को छायादार स्थान में ढे़री बनाकर जूट की बोरी से ढ़ककर रख दें तथा बोरी को नम बनाए रखें। अंकुर फूट जाने पर पौधशाला में छींट कर बुआई कर दें। पौधशाला में पानी सायंकाल में ही लगाएँ तथा पौधों की उचित बढ़वार हेतु नादेप कम्पोस्ट, जीवामृृत आदि का प्रयोग करते रहें। कीट.रोगों की रोगथाम हेतु नीम की पत्तियों/निबोली सत आदि का छिड़काव करें। रोपाई करने से पहले पौध को नर्सरी से उखाड़कर 5 प्रतिशत ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास के घोल में 15.20 मिनट तक डुबोने के बाद रोपाई करें।
सिंचाई.उचित जल प्रबंधन-
अच्छे फुटाव, नाइट्रोजन की उपलब्धि तथा खरपतवारों की संख्या को कम करने में सहायक होता है। फसल के कल्ले फूटना, फूल बनने एवं दानों में दूध बनने की अवस्था में फसल में नमी रखना आवश्यक है। इस समय नमी की कमी होने से पैदावार पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पौध रोपने के 10 दिन तक पानी को खेत में भरा रहने से खरपतवारों की संख्या कम हो जाती है। कम समय के अन्तराल पर हल्की सिंचाई करके नमी बनाए रखना पानी खड़ा रखने से अधिक लाभदायक है। फसल की कटाई से 1-.20 दिन पहले सिंचाई को रोक देना चाहिए।
जैविक खाद एवं उर्वरक –
जैविक खाद एवं उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। पोषक तत्त्वों की पूर्ति करने हेतु दलहनी फसलें व हरी खाद का उपयोग किया जाना चाहिए। तथा 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टे. की दर से सड़ी गोबर की खाद अथवा 80-100 क्विंटल कम्पोस्ट अथवा 50-60 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग बुआई पूर्व जुताई या पड़लिग के समय करें। इसके अतिरिक्त जीवाणु खाद.एजोस्पोरिलम, पी.एस.बी. 5 कि.ग्रा., जिंक घोलक 2-3 कि.ग्रा. प्रति हेक्टे. को गोबर की खाद में मिलाकर बुआई पूर्व प्रयोग करें। खड़ी फसल में 2-3 बार जीवामृत तथा वेस्ट डिकम्पोजर 500 ली. प्रति हेक्टे. घोल का सिंचाई के साथ प्रयोग करें। फसल के बाद की अवस्था में यदि पोषक तत्त्वों की कमी हो तो पाँच प्रतिशत पंचगव्य या 10 प्रतिषत गोमूत्र प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करें।
खरपतवार प्रबन्धन-
धान में संकरी पत्ती वाला सांवा घास (इकाईनौक्लोवा) मुख्य खरपतवार है। इसकी रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए। रोपाई के पूर्व हरी खाद को खेत में पलटने से खरपतवारों की संख्या में कमी आती है। तैयारी करते समय खेत में एक.दो बार पानी भरकर पडलिंग करें तथा रोपाई के बाद 10.12 दिन तक खेत में 2.3 इंच पानी खड़ा रखने से खरपतवारों का अंकुरण नहीं होता है। इसके बाद खेतों में हाथ द्वारा 1.2 बार खरपतवार निकाल देना चाहिए।
कीट प्रबन्धन –
धान की फसल में कई प्रकार के हानिकारक कीटों जैसे दीमक, गन्धी बग, लीफ हॉपर, तना छेदक, पत्ती लपेटकर, हरी सुंडी, सफेद पीठ वाला एव भूरा फुदका आदि का प्रकोप होता है । इन सभी कीटों के नियंत्रण के लिए एकीकृत जैविक कीट प्रबन्धन जैसे मई, जून के माह में खेतों की जुताई करना, प्रतिरोधी प्रजातियों का चुनाव, समय पर रोपाई, उचित फासला, खरपतवार नियंत्रण, उचित सिंचाई प्रबंधन आदि को अपनाकर हानिकारक कीटों की संख्या को कम किया जा सकता है। रसायनिक कीट नाशकों का प्रयोग न करके जैविक कीट नाशकों/वनस्पतिक कीटनाशक (नीमास्त्र/तरल कीटनाशक.10 प्रतिशत, अग्निस्त्र.3.5 प्रतिशत, नीम का तेल.5 मिली. प्रति ली. पानी) के प्रयोग करके कीट का उचित नियंत्रण करें। अधिक प्रकोप होने पर जैविक कीटनाशक मैटाराइजियम या बिवेरिया 3 लीटर प्रति हेक्टे. का 1.2 छिड़काव करें।
फसल में मित्र कीट परभक्षी एवं परजीवी कीटों का जैसे.लेडीबर्ड बीटल, परभक्षी, टिड्डा, ड्रैगन फ्लाई, प्रेइंग मेन्टिस तथा अण्ड परजीवी आदि का संरक्षण करें। ये हानिकारक कीटों का प्राकृतिक नियंत्रण करते रहते हैं। कुछ यांत्रिक विधियाँ.लाईट ट्रैप का प्रयोग, पीले चिपचिपे ट्रैप भी कीट प्रबंधन का एक भाग है।
रोग प्र्रबन्धन –
धान का खैरा रोग, जीवाणु झुलसा, ब्लास्ट, फाल्स स्मट, शीथ झुलसा, भूरा धब्बा आदि प्रमुख रोग है। इनकी रोकथाम हेतु वेस्ट डिकम्पोजर, वर्मीवाश तथा छाछ, गोमूत्र एवं हल्दी से बना घोल का छिड़काव बीमारी लगने से पहले या प्रारंभिक अवस्था में करना चाहिए। अधिक प्रकोप होने पर जैव फफूंद नाशकों.ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास 5 प्रतिशत का छिड़काव भी करें। रोग अवरोधी प्रजातियां का चयन तथा बीज.शोधन रोग प्रबंधन के मुख्य अंग हैं।
एस.आर.आई. (System of Rice Intensification) की पद्धति –
यह प्रणाली सर्वप्रथम 1980 में मेडागास्कर में विकसित की गई थी। इस समय विश्व के बहुत से देशों ने इस प्रणाली को अपना कर धान का उत्पादन दो गुना तक बढ़ा लिया है। इस पद्धति में धान की जड़ों का विकास अधिक होता है, अधिक और मजबूत कल्ले फूटते हैं, बालियाँ बड़ी एवं उनमें अधिक स्वस्थ एवं वजनदार दाने बनते हैं। इस पद्धति में फसल में कीट.रोगों को सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।
एस.आर.आई. पद्धति के लाभ –
- कम बीज एवं खाद की आवश्यकता के कारण लागत में कमी।
- पानी की बचत से सिंचाई पर कम लागत।
- हानिकारक कीडे़, बीमारियों के प्रकोप में कमी एवं कीटनाशकों पर होने वाले खर्च में कमी।
- अधिक कल्ले, बालां एवं स्वस्थ दानों के कारण अधिक उत्पादन।
- जैविक उत्पादन के कारण स्वादिष्ट एवं पौष्टिक खाद्य।
एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रबन्धन क्रियाएँ –
नर्सरी का प्रबन्धन –
एक हेक्टे. क्षेत्र में धान की रोपाई करने के लिए मात्र 1000 वर्ग मीटर की पौधशाला पर्याप्त होती है। पौधशाला बनाने के लिए 12 से 15 सेमी. ऊँची तथा 1.25 मीटर चौडी व आवश्यकतानुसार लम्बाई की क्यारियाँ बनाते हैं। इनमें एक भाग सड़ी हुई गोबर की खाद को दो भाग भुरभुरी मिट्टी के साथ मिलाकर क्यारियों में मोटी परत के रूप में बिछा दिया जाता है। एक हेक्टे. क्षेत्रफल की रोपाई करने के लिए मात्र 5.6 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। क्यारियों में बीज को एक समान छिड़ककर ऊपर से सड़ी गोबर खाद या नादेप खाद या वर्मी कम्पोस्ट की बारीक परत से ढ़कने के बाद फिर धान की पुआल से ढ़क देना चाहिए। क्यारियों में पहले अकुंरित किए गए बीज को भी बुआई के लिए प्रयागे कर सकते हैं। बीजों के अंकुरण हेतु उन्हें पहले 12 घटें तक पानी में भिगोया जाता है और अगले 24 घटों के लिए बीजों को गर्म स्थान जैसे भूसे आदि के अन्दर दबा दिया जाता है। पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिए फव्वारा विधि से सिंचाई करते रहना चाहिए। इस पद्धति में 10.12 दिन पुरानी पौध की रोपाई की जाती है। इसमें हरी खाद, सड़ी गोबर की खाद, नादेप कम्पोस्ट तथा वर्मी कम्पोस्ट का रोपाई के समय संस्तुति के अनुरूप प्रयोग करें।
पौध रोपण हेतु छोटी पौध का प्रयोग –
इस विधि में 8-12 दिन पुरानी दो पत्तियों वाली पौध का रोपण किया जाता है जिससे अधिक संख्या में कल्ले निकलते हैं और जड़ों का अधिक विकास होता है। प्रत्यके पौधे से 3-6 स्वस्थ कल्ले तथा अधिक सख्ंया में बालियाँ विकसित होती हैं जो एक समान रूप से पकती हैं और प्रति बाली दानों की सख्ंया भी अधिक होती है।
सावधानीपूर्वक पौध रोपण –
पौधों को नर्सरी से बहुत.ही सावधानीपूर्वक मिट्टी व जड़ों सहित निकालकर बिना धोए पौधे को तैयार खेत में रोपित कर देना चाहिए। रोपित पौधे में तेजी से वृद्धि करते हुए अधिक संख्या में कल्ले निकालते हैं।
अधिक दूरी पर पौध रोपण –
पौधों की रोपाई 20.25 सेमी. की दूरी पर की जाती है। इसके साथ.साथ अधिक उर्वरता वाले खेतों में रोपाई की दूरी को बढ़ाया जा सकता है। इसलिए इस विधि में केवल 5.6 किग्रा बीज प्रति हेक्टे. की आवश्यकता होती है। इस पद्धति में पौधों की रापेई में एक स्थान पर एक पौधा ही रोपित किया जाता है जबकि परम्परागत विधि से एक स्थान पर दो से तीन पौधों की रापेई की जाती है।
खरपतवार नियन्त्रण –
इस पद्धति में खेत में पानी को खड़ा नहीं किया जाता है इसलिए खरपतवारों का प्रकोप बढ़ जाता है जिसके नियंत्रण हेतु रोटरी वीडर का प्रयोग रोपण के 10-12 दिन के बाद किया जाता है। उसके बाद 10 दिन के अन्तराल पर खरपतवारों को खेत में ही वीडर के द्वारा मिला दिया जाता है। निराई करने से जड़ों को अधिक मात्रा में ऑक्सीजन की मिलती है, सूक्ष्म जीवों की सख्ंया में वृद्धि तथा पोषक तत्त्व मिलते हैं।
सिंचाई प्रबन्धन –
इस पद्धति में जल प्रबन्धन को सावधानीपूर्वक अपनाना आवश्यक है। इसमें केवल खेतों को नम रखा जाता है और खेत में पानी को खड़ा करने की आवश्यकता नहीं होती है। एस.आर.आई. पद्धति में परम्परागत खेती की तुलना में मात्र आधे से एक तिहाई पानी ही पर्याप्त होता है।
खाद एवं जैविक उर्वरक –
मृदा की उर्वरता को बढ़ाने एवं उसकी दशा को ठीक करने के लिए विभिन्न प्रकार के जैविक खादों की आवश्यकता होती है जिससे मृदा की भौतिक एवं रसायनिक संरचना में सुधार होता है और खेतों में लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं की सख्ंया में भी वृद्धि होती है। अतः जैविक खाद जैसे गोबर की खाद, नादेप कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद तथा जैव उर्वरको का प्रयोग संस्तुति मात्रा में करना चाहिए।