करेला ग्रीष्म ऋतु की मुख्य सब्जी है। उच्च पोषक तत्त्व तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के कारण इसका बड़ा ही महत्व है। करेले में विटामिन “ए”, “बी”, “सी” तथा खनिज लवण पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं।
Table of Contents
मचान विधि –
एक एकड़ में मचान विधि से करेले की खेती एकीकृत पौध पोषण प्रणाली Integrated Plant Nutrition System को अपना कर प्रणाली में फॉइलर न्यूट्रीशन पर अधिक फोकस किया जाता है। इसके अलावाए फेरोमोन ट्रैप येलो स्टिकी ट्रैप आदि के उपयोग पर विशेष जोर दिया जाता है। इससे प्रति हेक्टेयर 450 क्विंटल से किसानों की उपज से करीब 28-90 फ़ीसदी हो सकती है।
मचान विधि कैसे बनाये –
इसे कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है। लता या बेल वाली सब्जियों को किसी सहारे की सहायता से ज़मीन से ऊपर तैयार संरचना पर फैला देते हैं। इसमें पौधों को लकड़ी लोहे या सीमेंट के पोल पर तार अथवा प्लास्टिक जाल से तैयार संरचना पर फैला दिया जाता है। इस तकनीक के कई फ़ायदे भी हैं। ज़मीन के संपर्क में नहीं आने से उपज आकार में लंबी और होती है। इससे उपज का बाज़ार मूल्य अधिक मिलता है। इस से पौधे भूमि से दूर रहने के कारण कीट व रोगों से कम प्रभावित होते हैं। इस विधि से खेती करने पर करीब प्रति हेक्टेयर लगभग 8 लाख 80 हज़ार की आमदनी हो सकती है।
Read More-पालक की खेती जैविक तरीके से कैसे करें | जिससे अच्छा आमदनी हो
भूमि एवं जलवायु –
करेला की खेती लगभग सभी प्रकार की भिम में की जा सकती है लेकिन जल निकास वाली दोमट मिट्टी जिसमें जीवांष की प्रचुर मात्रा हो, में करेला की भरपूर पैदावार ली जा सकती है। इसके लिए 6.5.7.0 पी.एच. वाली भूमि सर्वोत्तम होती है। करेला की अच्छी खेती के लिए नम, गरम जलवायु की आवष्यकता होती है। वातावरण में अधिक नमी होने पर फसल में रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है। बुआई के लिए 18.30 डि. सें. तापक्रम उपयुक्त रहता है। करेला की बेल की 25.30 डि सें. तापक्रम पर बढ़वार एवं उत्पादन अच्छा होता है।
उन्नतशील किस्म –
क्षेत्रों की भूमि, जलवायु आदि को ध्यान में रखते हुए बागवानी विभाग एवं अनुसंधान केन्द्रों द्वारा अनुमोदित करेला की उन्नत प्रजातियों का चयन करें। कुछ ओपन पोलीनेटिड/देशी प्रजातियां निम्न प्रकार हैं. पन्त करेला.1 (पहाड़ी क्षेत्रों के लिए) पूसा दो मौसमी, पूसा विशेष, कोयम्बटूर लाँग, अर्का हरित आदि। (विभिन्न मैदानी क्षेत्रों के लिए)।
बुआई का समय व बीज की मात्रा : फरवरी.मार्च, जून.जुलाई। एक हेक्टे. क्षेत्र में सीधी बुआई के लिए 4.5 कि.ग्रा. तथा पॉलीबेग में बुआई हेतु 2.5.3 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होता है।
भूमि शोधन एवं बुआई की विधि –
प्रायः करेला के बीज सीधे खेत में ही बोए जाते हैं। गर्मी वाली अगेती फसल लेने के लिए बीज को अंकुरित कर लेते हैं। खेत में 1.5 मीटर चौड़ी तथा आवश्यकतानुसार लम्बाई की क्यारियां बनाई जाती हैं। प्रत्येक 2 क्यारियों के बीच में 60 सेमी. नाली बना लेते हैं। बीज की बुआई क्यारियों के दोनों किनारों पर बने थालों में 45.60 सेमी. की दूरी पर करनी चाहिए। प्रत्येक थाले में 3.4 बीज 2.3 से.मी. गहराई पर बोए जाते हैं। इन थावलों का भूमि शोधन अमृतपानी से करें। जायद में करेला की अगेती फसल लेने के लिए करेले के बीज की 100 गेज पॉलिथिन की 10.15 सेमी. आकार की थैलियां में बुआई करें। बोने से पूर्व 100 ग्राम बीज को 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा से शोधित कर लेना चाहिए। पॉलिथीन बैग को घास.फूस की पलवार से ढँक देना चाहिए तथा अंकुरण होने पर पलवार को हटा दें। प्रतिदिन सायं काल फव्वारे से हल्की सिंचाई करते रहें। पौध तैयार होने पर खेत में 1.5 मीटर चौड़ी या आवश्यकतानुसार लम्बाई की क्यारियाँ बनाकर पौध को थालों में रोप दें। मुख्य खेत में बनाए गए थांवले में करेले की रोपाई फरवरी माह के अन्त में अथवा मार्च के प्रथम सप्ताह में करनी चाहिए। पॉलिथीन को अलग करने के पश्चात् मिट्टी सहित पौधे की रोपाई करके तुरन्त ही खेत की सिंचाई कर दें।
खाद एवं जैविक उर्वरक –
करेला के बीज की खेत में सीधी बुआई के लिए खेत तैयार करते समय 70-80 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद/कम्पोस्ट अथवा 20.25 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट प्रति हेक्टे. की दर से खेत में मिलाएं या बनाए गए थालों की मिट्टी में मिला दें। इसके अतिरिक्त बुआई करने से पहले एजोटोबेक्टर, पी.एस.बी. आदि जैव उर्वरकों की 3 कि.ग्रा. मात्रा को 100-150 कि.ग्रा. सडी गोबर की खाद के साथ मिलाकर थांवलों की मिट्टी में मिला दें। गौ.मूत्र के 10 प्रतिशत घोल का पहला छिड़काव सीधी बिजाई/रोपाई के 20.25 दिन बाद तथा दूसरा छिड़काव 40.45 दिन पर करें। पहली निकाई.गुड़ाई के समय गड्ढ़ों में पौधे के चारों तरफ एक कि.ग्रा. प्रति गड्ढे की दर से नादेप/वमी र्कम्पोस्ट का प्रयोग करें। वर्मीवाश के 10 प्रतिषत घोल के 3 छिड़काव क्रमशः फूल आने से पहले, दूसरा फल बनते समय एवं तीसरा छिड़काव फल विकसित होने की अवस्था में करने से करेले के फल बडे़, ठोस एवं चमकीले बनते हैं।
सिंचाई –
गर्मियों की फसल में एक सप्ताह के अन्तराल पर सिंचाई करते रहें। फल के पूर्ण विकसित होने की अवस्था में आवष्यकता पड़ने पर ही सिंचाई करें। फसल में कभी भी गहरी/अधिक सिंचाई न करें। सिंचाई का पानी फलों के सम्पर्क में नहीं आना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन –
करेला की फसल में साधारणतः 2.3 बार निकाई.गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली निकाई.बुआई/रोपाई के लगभग 20.25 दिन बाद तथा दूसरी व तीसरी निकाई.गुड़ाई क्रमशः 35.40 एवं 50.55 दिन बाद करनी चाहिए। यदि खेत में खरपतवार की संख्या अधिक है तो चौथी गुड़ाई 70.75 दिन बाद कर सकते हैं। फसलमें पौधे के चारों तरफ सूखी घास की पलवार (मल्चिंग) का प्रयोग करने से खरपतवार पर नियंत्रण के साथ.साथ सिंचाई कम करनीपड़ती है।
कीट नियंत्रंण –
करेले का लाल कीट, इपीलेकेना बीटल तथा फल.मक्खी कीट के नियंत्रण हेतु 5 प्रतिशत ब्रह्मास्त्र/अग्नि अस्त्र/नीमगुठली पाउडर के घोल का 10.12 दिन के अन्तराल पर 2.3 बार छिड़काव करना चाहिए। पंचगव्य घोल 3 प्रतिषत का 1.2 बार छिड़काव फूल आने से पहले करने पर फसल में कीड़ां के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
रोग प्रबंधन –
आर्द्रगलन –
यह एक फफूंदी जनित रोग है जो नए अंकुरित पौधों की जड़ों/तनों को प्रभावित करता है जिससे पौधा नीचे गिर जाता है।
फल सडऩ.यह खरीफ में बोई जाने वाली लौकी की मुख्य बीमारी है। यह पिथियम, फाइटोफ्थोरा, राइजोक्टोनिया नामक भूमि जनित फफूंद से फैलता है। भूमि से सम्पर्क में होनी वाली पत्तियाँ व फल इसके संक्रमण से गल जाते हैं।.
प्रबंधन-
गर्मी की गहरी जुताई, फसल चक्र, जल निकास, ्स्टेकिंग प्रभावित फलों को नष्ट करना, ट्राइकोडर्मा/स्यूडोमोनास (3्र.4 कि.ग्रा.को 150 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर) द्वारा भूमि उपचार तथा बीज शोधन एवं नीम की खली (150.200 कि.ग्रा.) का प्रयोग आदि।
मृदु रोमिल आसिता एवं चूर्ण आसिता (पाउडरी/डाउनी मिल्डयू).ये लौकी को हानि पहंचाने वाली मुख्य बीमारियां हैं। पाउडरी मिल्डयू से प्रभावित पत्ती, तने व फल आदि पर मट मैले सफेद रंग का पाउडर जैसा पदार्थ लगा रहता है और पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। पौधे एवं फलों की बढ़वार रुक जाती है।
डाउनी मिल्डयू से प्रभावित पत्तियों पर अनियमित छोटे-छोटे पीले धब्बे बन जाते हैं। अधिक नमी वाले मौसम में भूरे.सफे़द रंग की फफूंद पत्तियों के नीचे दिखाई देती है।
उपचार-
- रोग.प्रतिरोधी प्रजातियां का चुनाव।
- प्रभावित क्षेत्रों में 1.2 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिए।
- प्रभावित फसल अवशेष, पत्ती व फल आदि को नष्ट करना।
- पौधों के बीच का उचित फासला एवं पानी का उचित निकास।
- पौधों को लकड़ियों के सहारे ऊपर चढ़ाना।
- 10 प्रतिशत जीवामृत तथा गौमूत्र का 10-15 दिन के अन्तराल पर प्रयोग।
- 5 कि.ग्रा. हल्दी पाउडर को 20 कि.ग्रा. राख में मिलाकर बुरकाव करना।
- 8.10 दिन पुरानी 20 लीटर खट्टी लस्सी/मट्ठे में 50 ग्राम हल्दी तथा ताँबे के तार को मिलाकर और इसे 250 लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अन्तराल पर इसका 2.3 बार छिडक़ाव करना।
तुड़ाई, ग्रेडिंग, पैकिंग एवं विपणन –
फलों को मुलायम अवस्था में पूर्ण विकसित होने पर तोड़ लेना चाहिए। रोगग्रस्त तथा सड़े.गले फलों को अलग करने के बाद शेष फलों को आकार के अनुसार ग्रेड (मध्यम एवंछोटे आकार) में रखें। बाजार में करेले को भेजने के लिए लकड़ी के क्रेटस का उपयोग करना सुविधाजनक रहता है। इससे करेले दागी व खराब नहीं होते।
बीज उत्पादन –
आनुवांशिक शुद्ध बीज उत्पादन प्राप्त करने के लिए दो किस्मों के बीच 800 मीटर की पृथककरण दूरी रखना आवश्यक होता है। बीज उत्पादन करने वाले पौधे/बेल की विशेष देखभाल जैसे.सिंचाई,निकाई.गुड़ाई, खरपतवार नियंत्रण, रोग एवंकीट नियंत्रण आवश्यकतानुसार समय पर करना चाहिए। खरपतवार व रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें। जब फल पूर्णतया पक जाए तो फलों को तोड़कर इकट्ठा कर लें। बीज को गूदे से अलग व साफ करने के बाद धूप में तब तक सुखाए जब तक बीज में नमी की मात्रा 9.10 प्रतिशत तक न रह जाए। सूखे हुए बीज को शोधित करके किसी सूखे कांच की बोतल/डिब्बे आदि में भरकर और अच्छी तरह से उसका ढ़क्कन बन्द कर के किसी सुरक्षित नमी रहित स्थान पर रख दें।